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________________ ४० ] पञ्चदशः सर्गः ७२५ व्योमाधुना भवत्-नक्षत्रसंघातयुक्तं सत् विहायो भवतीति । या कुमुदती घले दुःखिता नाम कैरविणी संकुचितत्वात् साधुना सुमुदती प्रशस्तियुक्ता जाता। इत्यतः कृत्वात्र लोके क्षणदाप्रणीतिः क्षणदाया रात्रः प्रणोतिः प्रवृत्तिर्यद्वा तु क्षणदा क्षणसात्परिवर्तनशीला प्रणीतिर्जाता लक्ष्यते तावत् ॥३९॥ पीतं यदेतन्निशयाम्बरन्तु नीडं खगाः स्पष्टमिति श्रयन्तु । प्रयाति कामी नवलोहितन्तु दारा श्रयन्ते धवलम्मवन्तः॥४०।। टोका--- यदेतदम्बरमाकाशमेव वस्त्र तन्निशया राज्या पीतं ग्रस्तं यद्वा तु हरिद्रया पीतवर्णमस्ति। तु पुनः खगाः पक्षिणस्तदेव नीडमिति डलयोरभेदात् नीलं श्यामवर्ण स्पष्टं यथास्यात्तथा श्रयन्तु निभालयन्तु यन्निभालयन्ति तावत् । यद्वा नोडं कुलायं श्रयन्तु सन्ध्यासमयत्वात् । कामी कामातुरो मनुष्यः स नवं च तल्लोहितं रक्तवर्णं च तत्प्रयाति जानाति यतः किलानुरागवान् भूत्वा नवलस्तरुणवयस्कः कामी हितं सुख-शर्मसाधनं प्रयाति तदेवाकाशं प्रत्येति । दाराश्च भवन्तस्ते प्रख्याता युवतय इत्यर्थः । ताश्च तदाकाशं धवलं शुक्लवर्ण जानन्ति, तस्मिन्नन्धकारबहुले गगनेऽपि यथेच्छप्रक्रम कुर्वन्ति, धवस्य प्राणेश्वरस्य लम्भः प्राप्तिस्तद्वन्तो जाता इति यावत् । अर्थादेकवर्णमप्याकाशं यथारुचि नाना वर्णतयानुज्ञातं लोकैरिति ॥४०॥ आकाश हो रहा है। और जो कुमुदिनी दिनमें संकुचित रहनेसे कुमुद्वतीकुत्सित हर्षसे सहित थी-दुखी थी वही इस समय विकसित हो जानेसे सुमुद्वती-उत्तम हर्षसे सहित है । इस तरह इस समय क्षणदा-रात्रिकी प्रवृत्ति परिवर्तनशील है। तात्पर्य यह है कि किसीको दुःखका कारण है और किसीको सुखका कारण है। 'क्षणमुत्सवं ददातीति क्षणदा' जो उत्सव देवे वह क्षणदा और जो 'क्षणमुत्सवं द्यति खण्डयतीति क्षणदा' जो उत्सवको खण्डित करदे वह क्षणदा है। अथवा 'क्षणं परिवर्तनं ददातीति क्षणदा' जो क्षण क्षणमें परिवर्तनको देती है वह क्षणदा है। इस प्रकार क्षणदा-रात्रि वाचक क्षणदा शब्दके विविध अर्थ हैं ।।३९।। अर्थ-यह जो अम्बर-आकाश है उसे रात्रिरूपी स्त्रीने पीत-पीला वस्त्र समझ पीत कर लिया है-ग्रस्तकर लिया है। पक्षी उसी आकाशको नीड-नीला (पक्षमें घोंसला) समझकर उसका आश्रय ले रहे हैं । कामी जन उसे नवलोहितनवीनलाल वर्णका समझ रहे हैं (पक्ष में नवल-नूतन तारुण्ययुक्त कामी जन उसे हित-सुखका साधन जान रहे हैं और दार-स्त्रियाँ उसे धवल-शुक्ल वर्ण समझकर स्वीकृत कर रही हैं अर्थात् आकाशके तिमिराच्छादित होनेपर भी उनकी काम-प्रक्रिया चल रही है। पक्ष में दारा-स्त्रियाँ धवलम्भवन्तःपतिकी प्राप्तिसे सहित हो रही हैं अर्थात् कामातुर हों पतिके पास पहुँच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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