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________________ ७२३ ३६-३७ ] पञ्चदशः सर्ग: यस्यास्सा । समथितं सर्व सम्मतं साधूनां विधानं सन्ध्यावन्दनाख्यं, पक्षे सा, धूनाभूवादि धातूनां विधानमेति प्राप्नोति । एवं सन्ध्यासमयस्य व्याकरणत्वम् । अस्तोदेयाहार्यगतार्कचन्द्राभिधानकर्णाभरणाप्यतन्द्रा । समुत्क्षिपन्तीकुसुमानिभानि ह्यायातिसंध्यासुतरामिदानीम् ॥३६॥ टीका-अस्तोक्याख्यावाहार्यो पर्वतो तत्रगती प्राप्तावर्कचन्द्राभिधानावेव कर्णाभरणे यस्यास्सा तन्द्राहीनानालस्यवतीभानिनक्षत्राणि तान्येव कुसुमानि सुमत् प्रसन्नतया यथा स्यात्तथाक्षिपन्ती सतीदानीमात्मावसरे सुतरामेनायाति किल ॥३६॥ असौ निशेन्दोः परिरम्भवारावारात्तु ताराश्रमवारिसारा । ह्रियांशुंदीपव्ययिनीत्युदारा . तमोमिषात्तत्कृतधूमधारा ।।३७।। टोका-असौ निशा नाम स्त्री, इन्दोः स्वस्वामिनः परिरम्भवारात् आलिङ्गनसमयात् हेतोस्तु पुनरारात् शीघ्रमेव तारा श्रमवारिणः पतिसंगमकालसंभूतस्य सात्विकस्य स्वेदस्य सारा यस्यास्सा । उदारा पवित्राशयवती ह्रिया त्रपया कुत्वांशुदीपस्य सूर्यनामक दीपकस्य व्ययिनी हानिक/ समस्ति तत एव तमोमिषात्तिमिरच्छलतः एषा तेनांशुवीपव्ययेन कृता सम्पादिता धूमधारा प्रसरतीति ॥३७॥ साधुओंकी सामायिक-सन्ध्या वन्दन आदि सर्वसंमत् विधिको प्राप्त हो रही थी ।* यह श्लेषोपमालंकार है ॥३५॥ अर्थ-अस्ताचल और उदयाचल पर स्थित सूर्य और चन्द्रमा ही जिसके कर्णाभरण हैं तथा जो आलस्यमें रहित है ऐसी सन्ध्या (सन्ध्यारूपी स्त्री) बड़ी प्रसन्नतासे नक्षत्र रूपी पुष्पोंको वर्षाती हुई स्वयं ही इस समय आ रही है ॥३६॥ ___ अर्थ-जिसके शरीर पर तारारूपी स्वेद जलकी बूंदे झलझला रही हैं ऐसी इस पवित्र आशय वाली रात्रि रूपी बधू ने चन्द्रमारूपी पति के आलिङ्गन का समय होनेसे लज्जावश सूर्यरूपी दीपकको बुझा दिया है। इसीलिये अन्धकारके बहाने उस बुझे हुए दीपकसे धुएँकी धारा उठ रही है ॥३७।। १. 'अहार्यः पर्वते पुसि' इति विश्वः । २. 'अंशुस्त्विषि रवौ' इति विश्व० । * जैनेन्द्र व्याकरण में प्र-दी-प ये ह्रस्व-दीर्ध और प्लुत की संज्ञाएँ हैं । 'मृत्' सुवन्त की संज्ञा है और 'धु' यह धातु की संज्ञा है, समास-तद्धित और कृदन्त प्रकरण सभी व्याकरणोंमें प्रसिद्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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