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________________ ७२२ जयोदय-महाकाव्यम् [३५ यया सा पीततमाः प्रणष्टान्धकारेति यद्वा पीततमात्यन्तपीतवर्णा कीदृशैःपैर्दीपैः विकसन्तीति विकस्वरास्तैरुद्भासमानः, भर्म सुवर्ण तदेव मर्मकं तद्यत्र भावे भवतीति भर्मकिता तस्याः समीपैर्यद्वा सा समीपा येषां तैः स्वर्णघटितशलाकासदृशैः, तैविधृतैः संस्थापितैः, भुवि पृथिव्या अंकुरा एवाङ्का यस्याः साङ्कुरितरूपा हरिद्रा हरितो नाम दिशा रातोति हरिद्रा तथा च हरिद्रानाम वेशवारवस्तु वाक् शीघ्रमेव सौभाग्यवात्री अभात्तमा लसति स्मति नाम ॥३४॥ प्रदीपयुक्ता मदुदारभावा समासतस्तद्धितकृत्प्रभावा । समर्थितं साधविधानमेति संध्या स्वयं व्याकृतिसक्रियेति ॥३५॥ टीका-इति एवं रोत्या संध्या स्वयं सुतरामेव व्याकृतेाकरणस्य सत्क्रिया प्रतिभाति यतः प्रदीपयुक्ता प्रदीपैर्दीपकैर्युता संध्या तथा जैनेन्द्रव्याकरणे ह्रस्ववीर्घप्लुतानां क्रमशः प्रदीपसंज्ञा भवन्ति तैयुक्ता व्याकरणसत्क्रिया। मृदवः सुकोमला दाराणां स्त्रीणां भावा: परिणामाः सुरतोचिता यस्यां सा सन्ध्या, पक्षे मृवां प्रातिपदिकानां सुबन्तानां शब्दानामुदारभावो यस्यां सा । समासतः संक्षेपरूपेण तासां हितं कान्तसंयोगाविरूपं करोतोति प्रभावो यस्याः सा, पक्षे समासतो नामविभक्तिसंहारकर्मणः पश्चात् संज्ञाभ्यः समुक्तप्रत्ययकरणं तद्धितं, धातुभ्यः प्रत्ययकरणं च कृत् तद्धिते च कृत्प्रत्यये च प्रभावो जगह स्थापित किये गये थे उनसे अन्धकारको नष्ट करने वाली यह रात्रि हलदीके अंकुरोसे चिह्नित हो शीघ्र ही सौभाग्य देनेवाली हुई थी। भावार्थ-जिस प्रकार सौभाग्यशालिनी स्त्री हल्दीसे रंगे पीतवस्त्र धारण करती है उसी प्रकार यह रात्रि भी दोपकोंके प्रकाशसे पीतवर्णवाल। हो, सौभाग्यशालिनी हो रही थी॥३४॥ अर्थ-इस तरह उस समय वह सन्ध्या स्वयं ही अच्छी तरह व्याकरण सम्बन्धी सत्कियाको प्राप्त हो रही थी। क्योंकि जिस प्रकार व्याकरणकी सक्रिया प्रदीपयुक्ता-ह्रस्व दीर्घ और प्लुत संज्ञाओंसे सहित है उसी प्रकार सन्ध्या भी प्रदीपयुक्ता-अनेक दीपकोंसे सहित थी। जिस प्रकार ब्याकरणकी सक्रिया मृदुदारभावा-मृत्-सुबन्त शब्दोंके उदार-श्रेष्ठ सद्भावसे सहित है उसी प्रकार सन्ध्या भी मृदुदारभावा-स्त्रियोंके संभोगादि कोमल परिणामोंसे सहित थी। जिस प्रकार व्याकरणकी सत्क्रिया समासतस्तद्धितकृत्प्रभावा-- समास, तद्धित और कृदन्त प्रकरणोंके प्रभावसे सहित है उसी प्रकार सन्ध्या भी समासतस्तद्धितकृत्प्रभावा-संक्षेपसे स्त्रियोंके हितकारी प्रभावसे सहित थी। और जिस प्रकार व्याकरणकी सक्रिया ध-भूवा आदि धातुओंके समर्थित सर्वसंमत् विधान-प्रयोगको प्राप्त है उसी प्रकार सन्ध्या भी साधुविधानं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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