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________________ ३२-३३-३४] पञ्चदशः सर्गः ७२१ गतस्तटाकान्तरमाशु हंसस्त्यक्त्वामुकं पुष्करनामकं सः । तमोमिषाच्छैवलजालवंशः स्फुरत्यतोऽस्मिस्तमेमस्तवंशः ॥३२॥ टीका-हंसो नाम सूर्य एव मरालोऽमुकं पुष्करनामकमाकाशमेव जलाशयं त्यक्त्वाऽशु शीघ्रमेवाधुना तटाकान्तरं गतः कञ्चिदन्यजलाशयं प्राप्तोऽस्त्यत एवास्मिन पुष्करेऽस्तो दंशो भक्षणकरणपरिणामो यस्य स शैवलजालानां वंशः समूह एवायं तमोमिषावन्धकारच्छलेन स्फुरति उत्तरोत्तरमाधिक्येन लसति ॥३२॥ तमासमारम्भपरम्पराभित्सूचीरुचः पीनपयोधराभिः । दीपान्प्रबुद्धान् प्रतिधाम कामशरानिव स्वर्णधरान्वदामः ॥३३॥ टोका--पीनौ पुष्टौ पयोधरो यासां ताभिः स्त्रीभिः प्रबुद्धान् समुद्भावितान् तमसः समारम्भस्य परम्परां प्रति भिनत्तीति तमासमारम्भपरम्पराभित् चासौ सूची तीक्ष्णाग्रा तस्या रुगिव रुग्येषां तान् दीपान् धामधामप्रतीति प्रतिधामसम्भवान् स्वर्णधरान्कनकनिमितान् कामशरानेव वदामः । निशि दीपोद्योतं दृष्टेव कामिना कामसंचारसंभवात् ।३३ अभात्तमां पीततमा हि दीपैविकस्वरैर्भमकितासमीपैः । सौभाग्यदात्री विधुतैर्हरिद्रानामाङ्कराङ्का भुवि शर्वरी द्राक ॥३४॥ टोका-शर्वरीयं रात्रिः दीपः कृत्वा हीति निश्चयेन पीततमा पीतमुदरसात्कृतं तमो अर्थ--ऐसा जान पड़ता है कि हंस-सूर्यरूपी हंसपक्षी इस पुष्कर-आकाशरूपी पुष्कर-तालाबको छोड़कर शीघ्र ही अन्य तालाबमें चला गया है इसीलिये तो यहाँ अन्धकारके छलसे खण्ड रहित-भक्षण क्रिया से रहित शैवालका समूह उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है । तात्पर्य यह है कि जबतक तालाबमें हंस रहता है तबतक वह शैवालका भक्षण करता रहता है और उसके चले जाने पर शैवालका समूह उत्तरोत्तर अधिक मात्रामें बढ़ने लगता है ॥३२॥ अर्थ-स्थूल स्तनोंवाली स्त्रियोंने घर-घरमें जो अन्धकारके समूहको नष्ट करने वाली सूचीके समान दीपक जला रक्खे तो उन्हें हम कामदेवको स्वर्ण निर्मित वाण ही कहते हैं। भाव यह है कि दीपक कामवाणोंके समान जान पड़ते थे ॥३३॥ अर्थ-जो सुवर्णशलाकाओंसे निर्मितकी तरह देदीप्यमान दीपक जगह१. 'हंसः पक्ष्यात्मसूर्येषु' इत्यमरः । २. पुष्करं व्योम्नि पानीये इति विश्व० । ३. 'ध्वान्तं संतमसं तमम्' इति धनंजयः । ४. 'दोषेऽपि खण्डने दंशो' इति विश्व० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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