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२७-२८ ]
पञ्चदशः सर्गः
नष्टेsपि पत्यौ तरणी चुरामा सुधांशु मारादभिसर्तुकामा । समुत्तरीतुं परिवादघाटों तमोमयीं वा विदधाति शाटोम् ॥२७॥
टीका- रामाssकाशरूपिणी स्त्री तरणौ सूर्ये नाम पत्यौ स्वामिनि नष्टे सति प्रलयमिते सति, अपि पुनरारादेव शीघ्रमेव सुधांशु चन्द्रमभिसर्तुकामा चन्द्रमसं स्वीकर्तु - मिच्छावती भवती तमोमयोमन्धकाररूपिणों श्यामवर्णां शाटीमावरणवस्त्रं परिवादो नाम लोकापवादों धवं विहायान्यमिच्छतीति परिवादस्तस्य घाटों घटयित्रीं समुत्तरीतु पारं गन्तु विदधाति परिदधाति किल ॥ २णा प्रदोषसिंहक्रमणान्वयानां नेदं तमः क्षुब्ध दिशागजानाम् । विनिर्गलद् गण्ड जलप्रसारस्तारातिचारो कुवलोपहारः ॥२८॥
टीका - प्रदोषो रजनीमुखं स एव सिंहस्तेन कृते आक्रमणेऽन्वयः क्षुब्धरूपतया प्रत्ययो येषां तेषां क्षुब्धानां दिशागजानां विनिर्गलतो गण्डजलस्य प्रसारः पूर एव नत्विवं तमः । तथा तारातिचारात् नक्षत्रापदेशात्कुवैलानां मौक्तिकानामुपहारः परितोषकरणरूपो विद्यते ॥ २८ ॥
उल्लंघनकर निकलने वाले मनुष्योंके लिये प्रतिषेधक निषेध करनेवालेके समान दिखायी देता है || २६॥
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अर्थ - द्यौः - - आकाश रूपी स्त्रीने सूर्यरूपी पतिके नष्ट हो जानेपर शीघ्र ही चन्द्रमा रूपी अन्य पतिको स्वीकृत करनेकी इच्छासे लोकापवाद रूपी घाटीविषम भूमिको पार करनेके लिये अन्धकार रूप काली साड़ी धारण कर ली अर्थात् काले रङ्गका बुर्का ओढ़ लिया ।
भावार्थ - जिस प्रकार कृष्णाभिसारिका स्त्री 'मैं पहिचान में न आऊँ' इस भावनासे काला बुर्का ओढ़कर अन्य पतिके पास जाती है उसी प्रकार द्यौ:आकाशरूपी स्त्रीने भी लोकापवादसे बचनेके लिये अन्धकार रूप काला बुर्का ओढ़ रक्खा था || २७॥
अर्थ - यह अन्धकार नहीं है किन्तु प्रदोष (रात्रिका प्रारम्भ ) रूपी सिंह के आक्रमण में विश्वास रखने वाले क्षुभित दिग्गजोंके झरते हुए मद जलका प्रवाह है और नक्षत्रोंके बहाने मोतियोंका उपहार है ।
भावार्थ - यहाँ अपहनुति अलंकार के माध्यमसे कवि कह रहा है कि यह अन्धकार नहीं है किन्तु प्रदोष रूपी सिंहने दिग्गजोंपर आक्रमण किया है उस आक्रमणसे क्षोभको प्राप्त दिग्गजोंका झरता हुआ काला काला मद जल है, और १. ' कुवलं तत्पले मुक्ताफलेऽपि बदरीफले' इति विश्व० ।
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