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________________ ७१५ १८-१९] पञ्चदशः सर्गः प्राचीनतातोऽप्यनुरागवन्तं प्रतिश्रणत्येव नवा दृगन्तम् । निष्काशयत्याशु नभोनिकायात्सहस्त्ररश्मि चरमा दिशा या ॥१८॥ टीका-या घरमा दिशा पश्चिमदिशा सैव चापि रमा स्त्री, कोदृशी सा नवा तत्कालभिनयवती नववयस्का, अनुरागवन्तं लालिमान्वितं प्रीतिधारिण वा सहस्ररश्मि सूर्य प्रति, प्राच्याः पूर्वदिशाया इनतातः स्वामित्वेनाथवा प्राचीनतातः पुराणभावेन वृद्धत्वेन हेतुना कृत्वा दृगन्तं प्रेमपूर्वकावलोकनं श्रणति ददाति अपि किं, नैव ददाति । यद्वा दृगन्तं नाम क्षणमात्रावस्थानं न ददाति किन्तु नभोनिकायात् स्वस्मानभःस्वरूपादालयात् आशु शीघ्रमेवानादरेण निष्काशयति नवाया वृद्धेऽनुरागाभावात् ॥१८॥ निमोलतीहातिशयेन दिक्षु गलद्विरेफाश्रुपयोजचक्षुः । राजीविनीयं भवतो वियोगाच्छोकाकुलेवाभिरवीति योगात् ॥१९॥ टीका-रविभमिव्याप्य वर्ततेऽभिरवि योऽसावीतेर्वाधायायोगः समागमस्तस्मात् भवतः संजायमानाद् वियोगात् शोकाकुला संतापपरिपूर्णा राजीविनी कमलवल्ली विक्ष __ अर्थ-यह जो पश्चिम दिशारूपी नवीन वय वाली स्त्री है वह अनुरागवान्लालिमासे सहित (पक्षमें प्रेम सहित) भी सूर्यको, पूर्व दिशाका स्वामित्व होने (पक्ष में वृद्धत्व) के कारण प्रेमपूर्वक अवलोकन क्या देती है ? उसकी ओर नेत्र खोलकर देखती भी है क्या ? अर्थात् नहीं देखती। उसे वह अपने आकाशरूपी घरसे निकाल रही है। ____ भावार्थ-सूर्यको अस्त होता देख कवि कल्पना करता है कि पश्चिम दिशारूपी नववयस्का स्त्री वृद्धत्वके कारण उसे पसन्द नहीं करती है, उसकी ओर प्रेमसे देखती भी नहीं है, उसे क्षणभरके लिये भी अपने पास नहीं रहने देना चाहती है किन्तु अपने आकाशरूपी घरसे निकाल देना चाहती है जबकि सूर्य अनुराग-पश्चिम दिशारूपी स्त्रीके प्रति अनुराग-प्रेम रखता है। बाहर निकालनेका एक कारण यह भी है कि पश्चिम दिशारूपी स्त्रीको विदित हो गया कि इसके ऊपर तो प्राचीनता-पूर्वदिशाका स्वामित्व है-यह उसके अधीन है अतः इसपर हमारा स्वामित्व स्थापित नहीं हो सकता। भाव यह है कि जिस प्रकार नववयस्का स्त्री वृद्धपतिको पसन्द नहीं करती, इसी प्रकार अन्य स्त्रीमें आसक्त पतिको भी पसन्द नहीं करती ॥१८॥ अर्थ-जिसके कमलरूपी नेत्रोंसे निकलने वाले भ्रमररूपी आँसू दिशाओंमें व्याप्त हो रहे हैं ऐसी यह कमलिनी सूर्यके ऊपर आयो बाधासे होनेवाले वियोग १. इनस्य भाव इनता, प्राच्या इनता प्राचीनता तस्मात्, पूर्वदिक्स्वामित्वात् पक्षे प्राचीन रूपभावः प्राचीनता तस्याः वृद्धत्वात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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