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________________ ७१६ जयोदय- महाकाव्यम् [ २०-२१ विशासु समन्ततोऽतिशयेनानल्पभावेन गलन्तो निर्गच्छनो द्विरेफा भ्रमरा एवाश्रवो वाष्पलेशा यस्मात्तत् पयोजरूपचक्षुनिमीलति मुद्रयति । इहास्मिन् प्रसङ्गे । इवानुप्रेक्षायाम् । पतत्यहो वारिनिधौ पतङ्गः पद्मोदरे सम्प्रति मत्तभृङ्गः । आक्रीडकद्रोनिलये विहङ्ग : शनैश्च रम्भोरुजनेष्वनङ्गः ||२०| टीका- आक्रीडन कद्रोरुद्यानवृक्षस्य । अन्यत्सर्वं स्पष्टं भाति ॥२०॥ न दृश्यते क्वाप्युडुपस्तथा स प्रदोषभावात्तरर्णेविनाशः । नदी परूपे तिमिरे ब्रुडन्ति चक्षूंषि नॄणां विकलान्त सन्ति ॥२१॥ टीका - स उडुपश्चन्द्रमाः क्वापि कुत्रचिदपि न दृश्यतेऽनुदयात् । तरणेश्च सूर्यस्य प्रदीपभावात् सायंकालत्वाद् विनाशस्तिरोभाव एवं कृत्वा नृणां चक्षूषि यानि विकलानि प्रशक्तानि सन्ति तानि नदीपरूपे दोपाभावरूपे यद्वा दीव्यता विपरीते श्यामरूपे तिमिरे बुडन्ति निमज्जन्ति । लोके यथा झंझावातादिना दोषसद्भात्तरणिर्नामनौर्नश्यति, उडुपो नामडुलिश्च नोपलम्यते तदा विकलनि (रलयोरभेदात् ) करवर्जितानि यानि भवन्ति तानि तिमियुक्ते नदीपस्य समुद्रस्य रूपेऽवगाहे ब डन्त्येव तावत् ॥ २१ ॥ से शोकाकुल हो अपने तथाभूत कमलरूप नेत्रोंको अत्यन्त निमीलित कर रही है । भाव यह है कि जिस प्रकार पतिपर आयी विपत्तिसे शोकाकुल हो स्त्री आँसू बहाती हुई नेत्र बंद कर लेती है उसी प्रकार कमलिनी ने भी नेत्र बन्द कर लिये और निकलते हुए भ्रमरोंके व्याजसे वह आँसू बहाने लगी ॥ १९ ॥ अर्थ — आश्चर्य है इस समय कि सूर्य समुद्र में गिर रहा है, मत्तभ्रमर कमल के भीतर पड़ रहा है, पक्षी उद्यान वृक्ष पर बने घोंसले में जा रहा है और काम धीरे-धीरे स्त्रियों में प्रवेश कर रहा है ||२०|| अर्थं - वह उडुप-नक्षत्रपति - चन्द्रमा कहीं दिखायी नहीं देता और प्रदोषरात्रिका प्रारम्भ होनेसे तरणि-सूर्यका भी तिरोभाव हो गया है, इस तरह मनुष्योंको नेत्र विकल - बेचैन ( पक्ष में कर रहित) होते हुए दीपक - रहित तिमिरअन्धकारमें डूब रहे हैं । यहाँ भाव यह है कि जिस प्रकार प्रदोष --झंझा वायु आदि प्रकृष्ट दोष से जब तरणि- जहाज नष्ट हो जाता है और आपात कालके लिये सुरक्षित कोई उप-छोटी नौका भी दिखाई नहीं देती तब जहाज पर सवार विकलविकर - हाथ रहित मनुष्य जिस प्रकार दुःखी होते हुए तिमिर - तिमिर मगरमच्छों से भरे नदीपरूप - नदीपति समुद्रके मध्य में नियमसे डूबते हैं उसी प्रकार रात्रिके प्रारम्भ में चन्द्रमाका उदय न होने, सूर्यका तिरोभाव होने और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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