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७१४ जयोदय-महाकाव्यम्
[१६-१७ धराभितप्तेति विदां निधाय समेति तस्या अभिषेचनाय । समात्तसप्ताश्वकशातकुम्भकुम्भान्तिमाम्भोधिमियं दिनश्रीः ॥१६॥
टीका-इयं दिन श्री म वनिताहो एषा जगन्माता धरा पृथ्वीदानीमभितप्ता किल सन्तापसमन्वितास्तीति विदां बुद्धि निधाय धृत्वैव तस्या अभिषेचनाय सन्तापापहरणार्थ स्नपयितु समात्तः संगृहीतः सप्ताश्यकः सूर्य एव शातकुम्भस्य कुम्भः स्वर्णघटितकलशो ययां सा, अन्तिमाम्भोधि पश्चिमदिवसमुद्रं समेति गच्छति । यतोऽतोऽग्रतोऽसौ धरा सन्तापरहिता भवेदिति ॥१६॥ गर्मुल्कगोलं तु हिमावभीषू पुनर्जगद्भूषणतां निनीषुः । तापान्वितं सीमनि सिन्धुवारः प्रक्षिप्तवांस्तं विधिहेमकारः ॥१७॥
टोका-विधिः समय एव हेमकारः पश्यतोहरः स पुनरपि जगतो भूषणतां समस्तस्यापि भूलोकत्यालंकरणतां नेतुमिच्छनिनीषुः सन् एनं हिमावभीषु हिमं प्रालयमवन्तीतिहिमावः शीतापहारका अभीषरः किरणा यस्य तं सूर्यमेव गमुकस्य गोलं सुवर्णपिण्डं तापान्वितं तापेन धर्मेणान्वितं यद्वा वहि न संतप्तं च कृत्वा सिन्धुवारश्चरम समुद्रजलस्य सीमनि मध्ये प्रक्षिप्तवान् पातितवान् ॥१७॥
पतनका कारण प्रतिपादित किया गया है ।।१५।।
अर्थ-'पथिवी संतप्त है' ऐसी बद्धि धारण कर उसका अभिषेक करनेके लिये दिनश्री नामक कोई स्त्री सूर्यरूपी स्वर्ण कलशको लेकर पश्चिम समुद्रको गई है। ___ भावार्थ-सन्ध्या समय लालवर्ण वाला सूर्य पश्चिम समुद्रके समीप पहुँचा है इस सन्दर्भमें कविने उत्प्रेक्षा की है कि जगन्माता पृथ्वीको संतप्त देख उसे नहलानेके लिये ही मानों दिनश्री नामक कोई स्त्री सूर्यरूपी स्वर्णकलशको लेकर पानी लानेके लिये पश्चिम समुद्र के पास गयी है ।।१६।।
अर्थ-ऐसा जान पड़ता है मानों समयरूपी स्वर्णकार, फिर भी समस्त संसारकी आभूषणताको प्राप्त करनेकी इच्छा करता हुआ सुवर्ण पिण्डको तापसे युक्तकर अथवा अग्निमें तपाकर पश्चिम समुद्र सम्बन्धी जलके बीच डाल रहा है।
भावार्थ-कोई स्वर्णकार नया आभूषण बनानेके लिये सुवर्णपिण्डको अग्निमें तपाकर पानी में डाल देता है उसी प्रकार समयरूपी स्वर्णकार सूर्यरूपी सुवर्णपिण्डको तपाकर मानों पश्चिम समुद्रके जलमें डाल रहा है ।।१७।।
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