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१५॥
पञ्चदशः सर्गः
७१३ ____टीका-पूषा नाम सूर्यो दिवा प्रातरारभ्य सायपर्यन्तं यावद्दिनं श्रीमधुनः पात्र कमलाख्यं मदकारकं पोत्वास्वाद्य पुनरनन्तरमधुना लोहितं गात्रमेत्य मदानुभावेन शरीरेऽरुणिमानमासाद्य क्षीवत्वमुन्मत्तभावमापन्न इव किलायमधाधुना विपद्य पदहीनो निष्किरणो भूत्वा पतितुं समीहते निपातमिच्छति । अहो पानशौण्डतायाः परिणामस्याश्चर्यकारि प्रभावद्योतनार्थम् ॥१४॥ स्थितिः सतां सम्वरितामुकेन समङ्किता श्रीजडजेषु येन । रविः कुतो नावपतेदिदानीमुत्तापकोऽसौ जगतोऽभिमानी ॥१५॥
टीका-योऽसौ जगतो विश्वस्याप्युत्तापकः सन्तापकरो भवति धर्मदायको वा। यतो जडजेषु मुर्खेषु तेषु कमलेषु च श्रीः लक्ष्मीः शोभा च समङ्कितारोपिता, सतां साधुपुरुषाणां भानां वा स्थितिरवस्थानममुकेन सम्वरिता विनाशिता स एषोऽभिमानी मानस्य पराकाष्ठा मितः स इदानीं कुतो नावपतेत् ? लोकेऽभिमानस्य पराकाष्ठामितानां पतनस्यावश्यंभावात् । सन्निराकरणेनासतामावरणं त्वभिमानिव एव कार्यम् ॥१५॥
___ अर्थ-सूर्य दिन भर कमल रूप मद्य पात्रको पीकर लाल शरीरको प्राप्त हो गया-मदिरापानके नशासे उसका शरीर लाल हो गया । अब वह इस समय विपन्न-पद रहित स्थानभ्रष्ट अथवा निष्किरण हो नीचे गिरना चाहता है । आश्चर्य है कि मदिरा पानका ऐसा कुप्रभाव होता है ॥१४॥
अर्थ-इस सूर्यने सत्-साधु पुरुषों ( पक्षमें नक्षत्रों) की स्थितिको नष्ट किया है और जडज-मूखों ( पक्षमें कमलोंमें) श्री लक्ष्मी (पक्षमें शोभा) को स्थापित किया है । साथ जो जगत्को उत्ताप-तपन ( पक्षमें गर्मी ) को देने वाला है तथा अभिमानी है-घमण्डी है ( पक्षमें श्रद्धालु जनोंके अभिमान-समादरसे सहित है ) ऐसे सूर्यका इस समय पतन क्यों न हो?
भावार्थ-जो सज्जनोंकी स्थितिको नष्ट कर दुर्जनोंको प्रोत्साहन देता है, जो ज्ञानीजनोंको दरिद्र बनाकर मूल्को लक्ष्मीका निवास बनाता है, जो एक दोको नहीं समस्त संसारको संताप पहुँचाता है और स्वयं अपनी उच्चताका अभिमान्-अहंकार करता है उसका पतन अवश्य होता है।
सूर्योदय होनेपर सत्'-नक्षत्र विलीन हो जाते हैं, कमल विकसित होने से श्रीसम्पन्न सुशोभित होने लगते हैं, समस्त जगत्को ऊर्जा-आवश्यक गर्मी प्राप्त होती है तथा श्रद्धालु जनोंके द्वारा उसे अभिमान (संमुख-आदर) प्राप्त होता है। सूर्यकी इस स्वाभाविक स्थितिको यहाँ श्लेष द्वारा रूपान्तरित कर
१. श्रीलक्ष्मीभारतीशोभाप्रभासु सरलद्रुमे इति विश्व०
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