SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०-११] पञ्चदशः सर्गः ७११ किल गिलितुमुदरसात्कतु विज़म्भमाणं निरङ्कुशत्वेन वृद्धिमाप्तवन्तं वदन्तु कथयन्तु ते मरा ये किल वीनां पक्षिणां लयाह्वयं गुप्तिकारकं यद्वा विलयाह्वयं प्रलयनामानं कालं समयं विलोक्य तु पुनरात्मापराधस्य किमस्माभिरपराद्धं कि नवेत्येवमादि स्वेनानुष्ठितस्यापराधस्य दुष्कर्मणः स्मरन्तु ये किल स्मरन्ति सन्ध्यावन्दनायाम् ॥९॥ 'रवेरथो बिम्बमितोऽस्तगामि, उदेष्यदेतच्छशिनोऽपि नामि । समस्ति पाथेषु रुषा निषिक्तं रतोश्वरस्याक्षियुगं हि रक्तम् ॥१०॥ मित्रं हतं पश्यत आस्यमाराच्छितोकृतं श्रीनभसोऽश्रुधारा । उदेष्यदृक्षच्छलतो निरेति ततः शुचेयं मम भावनेति ॥११॥ टीका-मित्र सूर्यमेव सुहृदं हतं नष्टं पश्यतोऽवलोकयतः श्रीनभसः श्रीमतो गगनस्याराच्छीघ्रमेवास्यं मुखं शितीकृतं श्यामलतां नीतमस्ति । ततश्च मित्रहतिदर्शनाद्धेतोः समुत्पन्नया शुचा पश्चात्तापेन कृत्वोदेष्यतामुद्गच्छतामृक्षाणां नक्षत्राणां छलतो मिषात् इयं दृश्यमानाश्रुधारा नयनजलपरंपरा निरेति निर्गच्छतोति मम कविहृदयस्य भावना बर्तते ॥११॥ निगलनेके लिये निरङ्कुश रूपसे वृद्धिको प्राप्त हो रहा है तथा जो पक्षियोंके लिये लय-सुरक्षाकारक अथवा प्रलयकारक होनेसे विलय नामको प्राप्त है ऐसे समय-सूर्यास्त कालको देख कर उत्तम मनुष्य अपने अपराधोंका स्मरण करते हैं अर्थात् सन्ध्यावन्दना-सामायिकमें बैठकर अपने अपराधोंका स्मरण कर उनको आलोचना करते हैं ।। ९॥ ____ अर्थ-इधर सूर्यका बिम्ब अस्त हो रहा है और उधर चन्द्रमा का प्रसिद्ध बिम्ब उदय को प्राप्त होगा। क्रोधवश कामदेवके लाल-लाल नेत्रयुगल पथिकोंके ऊपर पड़ रहे हैं ।। १० ॥ अर्थ-मित्र-सूर्य (पक्ष में सुहृद्) को नष्ट हुआ देख शोभासम्पन्न आकाश १. ग्रन्थक; श्लोकस्यैतस्य संस्कृतटीका न कृता । इसके आगे मूल प्रतिमें निम्नश्लोक अधिक है दिनावसाने तरणेविनाशो न दृश्यते क्वाप्युडुपस्तथा सः । ___ नदीपरूपे तिमिरे ब्रुडन्ति चढूंषि नणां विकलानि सन्ति ।। इस श्लोक को सं० टीका नहीं है हिन्दी अर्थ अगले पृष्ठ पर देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy