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________________ ७१० जयोदय-महाकाव्यम् [८-९ सूर्य निभाल्यावलोक्य कृतं संजातं वा घुपतेरिन्द्रस्य विशायाः पूर्वायास्तमालस्य तमाखुपत्रस्य वास्यं वासभावोऽनुकरणं यस्मिस्तत् तादृगतिश्यामलमास्यं मुखं । यच्च किल जनीषु स्त्रीषु जातिस्वभावतयैव यः समुक्तो मत्सरभावः परोत्कर्षासहिष्णुत्वं तस्य भाष्यं स्पष्टीकरणममुकं हे मित्र ! पश्य तावत् ॥७॥ बन्धो परिप्राप्तवतीह भङ्ग सद्योऽधिमध्यं विनिवेश्य भृङ्गम् । निमीलिताम्भोजदगब्जिनीति जाता समारब्धविलासनीतिः ॥ ८॥ टोका-बन्धी कुटुम्बिनि सूर्ये भङ्ग परिप्राप्तवति सति अस्तंगते, इहास्मिन्नवसरेऽषिमध्यं मध्यमधिकृत्याधिमध्यं कोषकणिकायां धुत्वाथवा तु पुनरङ्कमारोप्य भङ्ग मधुपं विटं' सखः शीघ्रमेव विनिवेश्य समारोप्य निमीलितं मुद्रितमम्भोज पद्ममेव दृग्यया सा निमीलिताम्भोजक, अग्जिनी कमलवल्ली समारब्धा विलासिभ्यो विलासिनीनां वा नीतिः प्रवृत्तिः शिक्षा वा यया सा समारब्धविलासिनीतिरस्ति ॥८॥ आत्मापराधस्य नराः स्मरन्तु विलोक्य कालं विलयाह्वयं तु। प्राहोदयत्वात्तिमिलं वदन्तु विज़म्भमाणं गिलितु जगत्त ॥९॥ टीका-प्रहाणामयं प्राह उदयो यस्मिस्तस्वात्, यद्वा ग्राहस्य मकरनामजलजन्तो रुपय उच्चलनं यत्र तत्त्वात् तदेतत्तिमिलमन्धकारमेव तिमि लातोति तं समुद्र जगत् तु दिशा का मुख तमालपत्रके समान अत्यन्त श्याम हो गया । हे मित्र ! स्त्रियोंके मात्सर्य भाव का यह स्पष्ट उदाहरण देखो ॥ ७॥ अर्थ-अपने बन्धु-कुटुम्बी सूर्यका पतन होनेपर कमलिनीने शीघ्र ही भ्रमरको मध्यमें बन्द कर कमल रूपी नेत्र बंद कर लिये । इसतरह वह विलासिनी-स्त्री की ईति-पीडाको प्रकट करने लगी। अर्थात् पतिका निधन होने पर स्त्री शोक वश नेत्र भी नहीं खोलती है। अथवा-जिसप्रकार पतिके मरनेपर कोई विलासिनी-भोग प्रधान स्त्री शीघ्र ही अपने बीच किसी भृङ्ग-विटको बसा कर सुखसे नेत्र बन्द कर सोती है उसी प्रकार सूर्य रूप पतिके अस्तंगतनष्ट हो जानेपर कमलिनीने भी अपने भीतर भ्रमरको बसा कर सुखानुभूतिसे कमलरूपी नेत्र निमीलित कर लिये। इसतरह उसने अपने आचरणसे विलासिनी-कुलटा स्त्री की ईति-प्रवृत्ति को प्रकट किया ॥ ८॥ अर्थ-ग्राह-ज्योतिष शास्त्रमें प्रसिद्ध ग्रहोंका उदय होनेसे अथवा मगर मच्छादि जलजन्तुओंके उछलनेसे जिसे तिमिल-समुद्र कहते हैं, जो जगत् को १. 'भृङ्गः पुष्पत्वपे खिङ्गे तथा धूम्याटपक्षिणि' इति विश्वः । खिङ्गो विट इत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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