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________________ जयोदय-महाकाव्यम् लयं तु भव समं समेति दिनं दिनेशेन महीयसेति । कृतज्ञतां ते खलु निर्वहन्ति तमामसुभ्योऽप्यमलास्तु सन्ति ॥३॥ टीका-दिनमपि तु भर्ना निजस्वामिना महीयसा पूज्येन दिनेशेन सूर्येण सममेककालमेव लयं समेति प्रणश्यतीत्येवं येऽमलाः शुखस्वभावा भवन्ति ते खलु सत्यमसुभ्योऽपि प्राणानपि त्यक्त्वा कृतज्ञतामुपकारिणामाभारित्वं निर्वहन्ति न कदापि विस्मरन्ति ॥३॥ नवेऽधुना सङ्गमनेऽब्जनेतुर्दिशः प्रतीच्या मुखमण्डले तु । हार्दोचितहीविभवेन भाति प्रवाललक्ष्मीमुषि, कापि कान्तिः ॥४॥ टीका-अधुना दिनान्तसमयेऽब्जनेतुः सूर्यस्य सङ्गमने समागमे प्रतीच्या विशः पश्चिमाया मुखमण्डले प्रवालस्य विद्रुमस्य लक्ष्मों मुष्णाति चोरयतीति तस्मिन् लोहितवर्णे रागपूणे वा मुखे हार्दैन प्रेम्णोचिता या होर्नवसमागमत्वात् प्रेमपूर्विका या लज्जा तस्या विभवेनोदयेन कृत्या, काप्यनिर्वचनीया कान्ति ति शोभते । 'प्रवाललक्ष्मीमुषिका' एवमेकपदत्वेन कान्तिविशेषणत्वं वास्तु। नव इति तु तत्कालसजाते सङ्गमेऽस्मिन्निति ॥४॥ सरोजिनी कुड्मलितां दिशायाः समीक्ष्य साश्चर्यमितिस्मितायाः । मन्ये प्रतीच्या अधुनावभातितमामुदाताधरबिम्बकान्तिः ॥५॥ टोका-अधुना साम्प्रतं सरोजिनी कमलिनी कुड्मलितां कुड्मलभावमितां संकोचयुक्तां समीक्ष्य दृष्टैव खलु साश्चर्यमिति स्मिताया आश्चर्येण सहिता साश्चर्या सा चासो अर्थ-दिन, अपने स्वामी एवं पूज्य सूर्यके साथ ही नष्ट हो जाता है सो ठीक ही है क्योंकि जो शुद्धस्वभाव वाले होते हैं वे प्राणोंसे भी अर्थात् प्राण देकर भी कृतज्ञता का अत्यन्त निर्वाह करते हैं ॥ ३ ॥ ___अर्थ-इस समय सूर्यका नवीन समागम प्राप्त होनेपर पश्चिम दिशाके मंगा जैसे गुलाबी मुखमण्डलपर प्रेमोचित लज्जा के वैभवसे कोई अनिर्वचनीय कान्ति सुशोभित हो रही थी। भावार्थ-जिसप्रकार नवीन समागमके समय स्त्रीके मुखमण्डल पर लज्जामिश्रित अनुपम कान्ति सुशोभित होती है उसी प्रकार पश्चिम दिशा रूपी स्त्रीके मुखमण्डल पर भी सूर्य रूप नायकके साथ नवीन समागम होने पर अनिर्वचनीय शोभा प्रकट हुई थी ॥ ४॥ अर्थ-उस समय पश्चिम दिशामें जो लालिमा फैल रही थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानों कमलिनीको संकुचित देखकर पश्चिम दिशा रूप स्त्रीने जो अपना अधर फैलाया था उसी की कान्ति हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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