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________________ ६३२ जयोदय-महाकाव्यम् [२८-२९ यदसङ्ख्यकरा नृपास्त्रपां भुवि नीता विभुनाऽमुना पुनः । क्व महस्तव तत्सहस्रिणो रविमश्वायुदधूलयन खुरैः ।।२८॥ यदसङ्ख्येत्यादि । यद् यस्मात्कारणाद् भुवि पृथिव्यां येऽसङ्ख्यकराः सङ्ख्यातीतशुल्कवन्तोऽपि नपा अपि, अमुना विभुना स्वामिना त्रपां नीताः पराजयमापितास्तदा पुनस्तेषां कराणां सहस्रिणः सहस्रकिरणस्य महस्तेजस्तत्तब क्व वर्तते ? इतीव किल ते घोटका रवि खुरैः स्वपादशफैरुदधूलमञ् छादयन्ति स्म । उत्प्रेक्षलङ्कारः ॥ २८ ॥ द्विषतां हि मनांसि तवजे शितशोणोज्ज्वललोलतां ययुः । त्रपया कृपयाऽथ वल्लभा विरहेणापि भयेन भूपतेः ॥२९|| द्विषतामिति । तस्य जयकुमारस्य ध्वजे निःशाणाख्ये द्विषतां वैरिणां मनांसि हि किल समारोपितानि, जयकुमारेण पराजितत्वात् । त्रपया, अथ जयकुमारेणाभयदानं वत्स्वोन्मुक्तत्वात्कृपयाऽपि वल्लभानां स्वस्ववनितानां विरहेण भूपतेश्च भयेन कवाचिज्जयकुमारस्य पुनरपि कोपो न स्यादित्याशङ्कया शितं श्यामं शोणमरुणमुज्ज्वल धवलं लोलञ्चलञ्चैतेषां चपुर्णा धर्माणां समाहारस्तत्तां ययुः प्रापुः । अत्र यथासङ ख्यसहेतुका हू. त्योः सङ्करः ॥ २९॥ कर सकता, ऐसा सोचकर ही अखण्डरूपसे फैलनेवाली ध्वजाओंके वस्त्रोंके बीचमें सूर्य अपने आप ही अन्तर्हित हो गया ॥ २७ ॥ अन्वय : यत् भुवि अमुना विभुना असह्यकरा नृपाः अपां नीता, पुनः तत्सहस्रिणः तव महः क्व हि अश्वाः खुरैः रविम् उदधूलयन् (ययुः)। ___ अर्थ : इस राजा जयकुमारने असंख्य करवाले राजाओंको भी नीचा दिखाया है-फिर सहस्रकर (किरण), वाले तुम्हारा तेज तो है ही क्या, यह कहते हुए ही मानों घोड़े सूर्य की ओर धूलिको उड़ाते हुए जा रहे थे ॥ २८ ॥ ___ अन्वय : तद्ध्वजे हि द्विपतां मनांसि त्रपया अथ वल्लभाविरहेण अपि भूपतेः भयेन शितशोणेज्वललोलतां ययुः । __ अर्थ : उस राजा जयकुमारके ध्वजदंड (निशान) में चार बातें थी, काला लाल, सफेद तीन रंग और चंचलता । इसपर उत्प्रेक्षा है कि राजा जयकुमारकी ध्वजामें मानों शत्रु-राजाओंके मन ही निम्न प्रकारसे अंकित थे जा कि १. लज्जाके मारे तो काले पड़ गये थे, २. जयकुमारकी उनपर कृपा भी थी इसलिए अनुरागवश लाल भी थे, ३. अपनी वल्लभाओंसे दूर हो जानेसे सफेद पड़ गये थे और राजाके भयसे काँप भी रहे थे ।। २९ ।। www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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