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________________ १७] त्रयोदशः सर्गः ६२७ किम्विति । हे जनाः, किमु वर्मविरोधिनोयूयमत्र स्थिताः ? अधुना चैकतोऽपसरेत, एकपाश्र्वे स्थितो भवेत् । यतो गजपत्तननायकः श्रीजयकुमारो योऽस्माकं मतः सम्माननीय सपरिच्छदेन निजपरिकरेणान्वितः संस्त्वरं शीघ्रमेवायाति समागच्छति ॥ १३ ।। अपीति । हे दर्शकजनाः, इतः खलु बाजिनामश्वानां व्रजः समूहो व्रजति । इतो गजराजिहस्तिपक्तिः समाजति, अथवा स्यन्दनानां रथानां सञ्चयः समाब्रजति, पुनयू यमपि निर्भयं कथमास्थिताः ॥ १४ ॥ किम्विति । हे अङ्ग धृष्ट, निर्लज्ज, किमु पश्यसि, न दृश्यते किं त्वया, यदेतज्जनानां संघट्टनं सम्मर्दोऽस्ति । अतो निजं जङ्गममितस्ततश्चरन्तमङ्गजं तनयं वर्त्मतो मार्गमध्यात् सहसा शीघ्रमेवोत्थापय ॥ १५ ॥ अपोति । पाणिना पाणौ वा परीता स्वीकृता यष्टिर्येन यस्य वा स पाणिपरीतयष्टिकोऽग्रेतनः पुरश्चारी यो मानां मानवानां सार्थक इत्थमुक्तप्रकारमुदारवनि स्पष्टशब्दमुच्चरन् सन्नेवं गर्म मार्ग समुत्तरन् संशोधयन् निर्जगाम निर्गतवान् स्वयमात्मनैव ॥१६॥ उपकण्ठमकम्पनादयः प्रवरस्याश्रुतचारुवारयः । विरहाविरहाशया बभुरनुकुर्वन् स च तान् ययौ प्रभुः ॥१७॥ उपकण्ठमिति । तत्राकम्पनादयोऽतिनिकटसम्बन्धिनस्ते प्रवरजयकुमारस्योपकण्ठं समीपं सन्त आश्रु ताऽऽकणिता चावी जयकुमारकथिता वारिर्वाणो येस्ते, तथाऽऽश्रुतं चारस्नेहसूचकं वारिनेत्रजलं येषां ते विरहेण हेतुनाऽऽविरुद्भूतोऽहेतिशब्दो यत्रतादृगाशयोऽभि अर्थ : रथके आगे चलनेवाले लोगोंने मार्गमें खड़े लोगोंसे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया-अरे तुम लोग रास्ता रोककर बिलकुल निर्भय कैसे खड़े हो। तुरन्त तुम एक ओर हो जाओ । देखो; हस्तिनागपुरके राजा अपने परिकर-सहित आ रहे हैं; अरे भाई तुम लोग बेखबर कैसे हो? देखो-इस ओर घोड़ोंका समूह आ रहा है और इधर यह हाथियोंकी पंक्ति आ रही है । इधर यह रथोंका समूह आ रहा है। हे ढीठ ! क्या देख रहा है; क्या तुझे दिखता नहीं कि लोग चले आ रहे हैं इसलिए इस अपने छोटे बच्चेको रास्तमेंसे जल्दी उठा ले। इस प्रकार उच्च स्वरसे कहता हुआ हाथमें बेंत लिए अग्रगामी व्यवस्थापक जन-समुदाय वाले मार्गको भीड़-रहित करता जा रहा था ॥ १३-१६ ॥ .. अन्वय : प्रवरस्य उपकष्ठम् आश्रुतचारूवारयः विरहाविरहाशयाः अकग्पनादयः वभुः स च प्रभुः तान् अनुकुर्वन् ययौ । अर्थ : जिनकी आँखोंसे आँसू बह रहे हैं ऐसे अकम्पनादि जयकुमारके समीप होकर चल रहे थे और विरहका खेद प्रकट करते जा रहे थे। परन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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