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________________ ६५५ १३५-१३६ ] द्वादशः सर्गः सुधारसमयं भूयो रागायास्वादितं तु यत् । प्रियाधरमिव प्रीत्या श्रयन्ति स्माधुना जनाः ॥१३५॥ सुधारसेत्यादि । अधुना सम्प्रति भोजनान्तसमये जनास्ते वारयात्रिका दलं नागवल्लीसम्भवं यत् सुधारसमयं चूर्ण खदिरसारयुक्तं, यच्च भूयः पुनः पुनरास्वादितं रागाय रक्तिमार्थं आस्यरञ्जनार्थ भवति, ततः प्रियाया अधरमिवौष्ठमिव जानन्ति स्म । यतः प्रियाधरश्च सुधारसमयोऽमृततुल्यरसवान् भवति, रागायानुरागार्थञ्च भवति । किञ्च, अधुना जनाः साम्प्रतिका लोका. सुधारसमयाख्यं सुधारकनामसम्प्रदायं प्रियाधरमिव प्रोत्याऽऽश्रयन्ति । यः सुधारकसम्प्रदायोऽत्रास्वादितः सन् भूयो तथोत्तरमधिकाधिकं रागाय व्यभिचाराविरूपाय भवति । तत्र विधवादीनां लग्नविधेरपि समुचितत्वप्रतिपादनात् ॥ १३५ ॥ आतिथ्ये वस्त्रुटिरेव तु नः स्पष्टपयोधरमप्यस्ति पुनः । सुखपुरमिदमिति जन्यजनेभ्यः पथपथ्यवदासीद् गुणितेभ्यः ।।१३६।। आतिथ्येत्यादि । भो महाशयाः, वो युष्माकमातिथ्येऽतिथि-सत्कारे नस्त्रुटिरेव, भी सुखादिकका चाहनेवाला और स्वर्गकी सुधाका द्योतक था ॥ १३४ ॥ अन्वय : अधुना यत् तु सुधारसमयं आस्वादितं भूयो रागाय (तत्) जनाः प्रियाधरम् इव प्रीत्या आश्रयन्ति स्म । अर्थ : उस पानको बारातियोंने भी बड़े प्रेमसे लिया, क्योंकि वह सुधारस (चूना, कत्था और अमृत) से युक्त था और राग (लालिमा, स्नेह) को प्रकट करने वाला था ॥ १३५ ॥ विशेषार्थ-पद्यके प्रथम चरणमें पठित 'सुधारस मयं' पदका पदच्छेद 'सुधार + समयं' के रूपमें भी स्वोपज्ञ टोकामें करके यह अर्थ भी व्यक्त किया गया है कि आजके समयको सुधारक लोग सुधार अर्थात् उद्धारका युग कहते हैं। प्रस्तुत काव्यकी रचनाके समय कुछ सुधारक लोगोंने विधवा-विवाहको भी जाति-सुधार या विधवाओंके उद्धरार्थ समुचित बता करके उसके प्रसारका जोर-शोरसे प्रचार किया था। प्रस्तुत स्थल पर यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार ताम्बूल आस्वादन उत्तरोत्तर मुख-रागका कारण होता है उसी प्रकार ये विधवा-विवाह आदि कार्य भी आगे अधिकाधिक व्यभिचारादिरूप रागके वर्द्धक होंगे ।। १३५ ॥ अन्वय : वः आतिथ्ये नः तु त्रुटिः एव, पुनः अपि स्पष्टपयोधरम् इदम् सुखपुरम् अस्तु इति गुणितेभ्यः जन्यजन्येभ्यः पथपथ्यवत् आसीत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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