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________________ ९४-९५ ] द्वादशः सर्गः ५९७ भवन्ती सम्वदामि । यत् किल त्वं मां वंशजो पवित्रकुलोत्पन्ना, पक्षे शुद्धवेणुसम्भवामतएव सरला प्रगुणामृज्वीमनुमन्य नितान्तमेव वामामर्धाङ्गिनी पक्षे वक्रां कुरुषे तवा पुनरिहाहं तव कमणे कर्तव्याय सुगुणस्वमानुकूल्यं, पक्ष सप्रत्यञ्चस्वमर्हामि ॥ ९३ ॥ मम सम्प्रति किं न दक्षिणोसि द्विषते दिग्धव एव दक्षिणोऽसि । अभिवति कृतप्रदक्षिणोसि मम पित्रा बहुदत्तदक्षिणोऽसि ।। ९४ ।। स्वयशांसि च तावदक्षिणोषि सततं दीनजनाय दक्षिणोऽसि । प्रणयाय यथावदक्षिणोऽसि सकलानन्दविवेचनैकपोषी ।। ९५ ॥ ममेति । हे कान्त, त्वमभिवह्नि यज्ञाग्निमभिव्याप्य कृता प्रदक्षिणा येनैतादृशोऽसि । मम पित्राऽकम्पनेन बहुवत्ता वक्षिणा यस्मै सोऽसि । द्विषतेऽरिवर्गाय दक्षिणो दिग्धवो दिक्पालो यम इवासि । दीनजनायापि दक्षिण उदारमना दानशीलोऽसि । सततमेव ततः स्वयशांति च तावदक्षिणोषि न नाशयसि । प्रणयाय प्रेम्णे च यथावदक्षिण चक्षुषि णो निर्णयो विद्यते यस्य सोऽसि । एवं प्रकारेण सकलानन्दस्य विवेचनमेकं पुष्णासीति सकलानन्दविवेचनेकपोषी भवन्, सम्प्रति मम दक्षिणो वामेतर-पार्वभाक् किन्नासि किन्न भवसीत्यर्थः ॥ ९४-९५॥ समझकर भी वामा (वक्र) बना रहे हो, इसलिए मैं चापलता (चंचलता या धनुर्लता) बनकर कहती हूँ कि मैं आपके योग्य गुण (प्रत्यश्चा, क्षमा, विनयादियुक्त) को धारण करनेवाली बनूँ ।। ९३ ।। अन्वय : सम्प्रति मम दक्षिणः किन्न असि द्विषते दक्षिणः दिग्धव एव असि, अभिवन्हि कृतप्रदक्षिणः असि, मम पित्रा बहुदत्त-दक्षिणः असि । स्वयशांसि तावत् न अक्षिणोषि, दीनजनाय सततं दक्षिणः असि, प्रणयाय यथावत् अक्षिणः असि सकलानन्दविवेचनकपोषी। ___ अर्थ : इस समय आप मेरे दक्षिण भागवर्ती हुए हैं, इतना ही नहीं, किन्तु वैरियोंके लिए आप दक्षिण दिशाके पति (यम) भी हैं तथा आपने प्रणीताग्निकी प्रदक्षिणा भी दी है और इसीके उपलक्ष्यमें मेरे पिताने आपको बहुत-सी दक्षिणा भी दी है ।। ९४ । इसी प्रकार आप अपने यशको कभी क्षीण नहीं होने देते हैं क्योंकि दीनजनोंके लिए दान देनेवाले हैं, और प्रेमके लिए नेत्रके निर्णायक हैं (कि अमुक व्यक्तिके लिए अमुकका प्रेम है यह बात आप देखते ही जान जाते हैं) इस प्रकार आप सर्वथा सर्वदा आनन्दरसका पोषण करनेवाले हैं ॥९५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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