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________________ ५९६ जयोदय-महाकाव्यम् [ ९२-९३ वासि सम्भवप्ति, अतः पुनरम्बुमुक्षणे मेघस्य क्षणे वर्षाकालेऽस्मिन् क्षणे प्रवानावानलक्षणजलोत्सर्जने मया वामा वामभागस्था वक्रा च क्रियते नाम, या गृहमाबजते स्वीकुर्वते सते सभ्याय सदाऽभिरामा मनोहरा गृहिणी भवेरित्यर्थः ॥ ९१ ॥ प्रतिकूलविधानकाय वामां स्थविरेभ्योऽतिथये तुजेऽथ वामाम् । गृहकर्मणि भाषणे न वामामनुकीमनुकीमनुभावयामि वामाम् ।।१२।। प्रतिकलेत्यादि । प्रतिकूलं विरुद्धं विधानं यस्य तस्मै प्रतिकूलविधानकाय वामां भयंकरां, श्वृद्ध भ्यः पितृस्थानीयेभ्योऽतिथयेऽभ्यागताय, अथ तुजे सन्तानाय, स्वस्माल्लघुजनाय मां, २वृद्ध भ्यो मां स्वयमिवाचरणक: तेषां सेवाकारिणीमित्यर्थः । अभ्यागताय च मां लक्ष्मीमिवाभिलाषापूर्तिकर्ती, ३ बालजनाय मां मातरमिव पुष्टिवां ४ गृहकर्मणि रन्धनादिकार्ये न वामां दक्षां ५, भाषणे च पुनर्नवामामवक्रां मजुभाषिणी ६, माञ्चानुक! मदिच्छानुवर्तिनी ७ त्वामनुभावयामि प्रतिकरोमीति वरवचनोच्चारणमेतत् ॥१२॥ सरलामनुमन्य वंशजां मां कुरुषे कान्त नितान्तमेव वामाम् । इह चापलतेव सम्बदामि सुगुणत्वं तव कर्मणेऽर्हयामि ।। २३ ।। सरलामिति । हे कान्त, अहं चापलतेव, चपल एव चापलस्तस्य भावश्चापलता चाञ्चल्यं तदिव भूत्वा, चपलतां स्वीकृत्येत्यर्थः । यद्वा, चाप एव लता, सेव धनुर्यष्टिरिव अर्थ : पहले जयकुमार बोला कि हे सुकेशि, तुम गृहके ऊपरी भागके समान सरल हो, जलके गिरनेके समय तथा जडता (शीतलता और मूर्खता) का प्रतीकार करनेवाली हो और घरपर आये हुए सत्पुरुषके लिए 'मा' (लक्ष्मी) के समान हो, इस प्रकार तुम सर्वथा अभिराम हो, अतः मैं तुम्हें वामा बना रहा हूँ॥९१ ॥ अन्वय : प्रतिकूलविधानकाय वामां स्थविरेभ्यः अतिथये अथवा तुजे माम् गृहक मंणि भाषणे च न वामाम अनुकीम् वामां अनुभावयामि । . अर्थ : अथवा प्रतिकूल चलनेवालेके लिए तो तुम वाम (वक्र) हो, वृद्धोंके लिए तथा अतिथियोंके लिए और बच्चोंके लिए मा (माता और लक्ष्मी) हो, घरके कार्य में तथा सम्भाषण करने में नवामा (दक्षिण चतुर) हो, इसलिए मैं तुम्हें मेरा अनुकरण करनेवाली वामा (इच्छानुवत्तिनी) अनुभव करता हूँ। इस प्रकारसे सप्तपदोके अन्तमें जयकुमारने वचनोच्चारण किया ।। ९२ ॥ अन्वय : हे कान्त ! माम् गरलाम वंशजा अनुमन्य नितान्तमेव वामां कुरुप इह चापलता इव गम्वदामि तव कर्गणे सुगुणत्वं अर्हयामि । अर्थ : लव सुलोचना पाली-हे कान्त ! मुझे आप वंशज और सरल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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