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________________ जयोदय-महाकाव्यम् [ ६२-६३ च संश्लिष्टं श्लाध्य बभूव । नासा नासिका सा तु शकस्य कीरस्य नासेव कल्पना यस्याः सा, यद्वा शुकनामको वानप्रस्थस्तस्य कल्पना यस्यामिति सम्भावनेति । तस्य करे हस्ते च रतीशस्य शरो बाणः कुसुमरूपत्वात् जलजादि तस्य आशाऽभिलाषा परा अत्युत्कृष्टा, तथा च पराशरो नामापि वानप्रस्थस्तस्य आशा ॥ ६१ ।। कण्ठेन शङ्खस्य गुणो व्यलोपि वरो द्विजाराध्यतयाऽधरोऽपि । कौँ सवर्णौ प्रतिदेशमेष बभूव भूपो मतिसनिवेशः ॥६२॥ कण्ठेनेति । कण्ठेन कुण्ठात्मकेन गलेन शङ्खस्य कम्बोमूर्खस्य वा स्वभावो व्यलोपि लोपमितः । तस्य कण्ठः समादरो न बभूवेति यावत् । अधरोऽधरोष्ठो नीचप्रकृतिरपि द्विजैर्दन्तः द्विजन्मभिर्वा आराध्यः सेवनीयस्तस्य भावस्तत्ता तया वरः श्रेष्ठ एव, नामतोऽधरः, किन्तु कान्त्या प्रशस्त एवेति भावः । कर्णी श्रवणो, कस्य अनिलस्यण ययोस्तो चञ्चलावपि सवौं वर्णश्रवणशीलौ पण्डितौ च । इत्येवं कृत्वा, एष भूपः प्रतिदेशं प्रत्यङ्गं मत्या बुद्धः सनिवेशो रचना प्रस्तावो यस्य स बभूव ॥ ६२ ॥ रमासमाजे मदनस्य चारौ स्मयस्य चारौ विनयस्य मारौ । कुले समुद्दीपक इत्यनूमा कचच्छलात् कज्जलधूमभूमा ॥६३॥ विस्तृत था। उसकी नासिका तोतेके समान सुन्दर थी और उसकी कमरमें रतोश कामदेवके शर अर्थात् कमलको श्रेष्ठ अभिलाषा थी। ___ इस श्लोकका दूसरा भी अर्थ श्लेषसे होता है जो इस प्रकार है : उस राजा का मुख तो'नारद' ऋषिके आह्लादकी तरह युक्त था। उसका उरःस्थल व्यासऋषिसे श्लाघ्य था और उसकी नासिका शुकदेवमुनिकी कल्पनाकी तरह थी तो उस रतीशके हाथमें पराशर ऋषिकी आशा ( शोभा ) थी॥ ६१ ॥ अन्वय : (तस्य ) कण्ठेन शङ्खस्य गुणः व्यलोपि । अधरोऽपि द्विजाराध्यतया वरः । कर्णौ च सवर्णी । एवं एषः भूपः प्रतिदेशं प्रतिसन्निवेशः बभूव । अर्थ : उस राजाके कंठने तो शंखकी शोभा हरण कर ली और उसका अधर प्रशंसनीय दांतोंवाला था। उसके कान अच्छी तरह सुननेवाले थे। इस तरह वह राजा जयकुमार अपने प्रत्येक अंगोंसे सुन्दर होते हुए बुद्धिसे संयुक्त था। कारण उसका कंठ शंखका गुण मूर्खताको नष्ट करनेवाला था, उसका अधर ब्राह्मणोंको अर्थात् पंडितोंकी संगतिमें रहनेसे श्रेष्ठ था और उसके कान तो स्वयं ही सवर्ण वर्णश्रवणशील अर्थात् विद्वान् थे ।। ६२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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