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________________ १६-१८ ] द्वादशः सर्गः नृप आह ससाहसन्तु में या तनया साम्प्रतमस्ति चेत्प्रदेया । भवताद्भवतां प्रसन्नपादपरिणेत्रीति वरं ममानुवादः ।। १६ ।। किमसाविति । freeौ जयकुमारः प्रलम्बमानोऽतिलम्बितो यो नायकस्य नाम मध्यस्थ मुख्यगुणे: स्थानीयः प्रसूनस्तबको यत्र तन्मात्यमनङ्गमङ्गलायाः कामदेवस्य कल्याणरूपाया मम सौहृदाय भायात् सौभाग्यार्थं भवेदिति काकूत्थं प्रश्नवाचकमक्षरमुदीक्ष्य समनुमन्य अथात्र स नृपोऽकम्पनो नूनमित्येतदाह-यत्किल हे वरराज, या मे तनया साम्प्रतं प्रदेयास्ति तदा भवतामेव प्रसन्नपादयोः परिणेत्री सेविका भवतादिति ससाहसं ममानुवादः समर्थनरूपो वरः शुभाशीरस्तीति शेषः ।। १५-१६ ॥ ५.६५ किमु सोऽस्ति विचारकृत्पयोदः परियच्छन्निह चातकाय नोदम् । अभिलाषभृतेऽथ पर्वताय प्रतिनिष्कासयते ददाति वा यः ॥ १७ ॥ किविति । हे वरराज, यः पयोदो मेघोऽभिलाषभृते वाञ्छयते चातकाय जलं न परियच्छन् न समुत्सृजन् अथ च प्रतिनिष्कासयते तिरस्कुर्वते पर्वताय वा ददाति स किमु विचारकृदुपकारी, अपि तु नैव, यतो यत्रोपयोगस्तत्रैव दातव्यं बुद्धिमतेति ॥ १७ ॥ हृदयेन दयेन धारकोऽसि त्वमुष्या यदनुग्रहैकोषी । असमञ्जसवार्धिराशुभावात्परितीयेत किलेति बुद्धिनावा ।। १८ ।। अर्थ : सुलोचनाने जो जयकुमारके वक्षःस्थलपर माला डाली वह अत्यन्त लम्बे नायक फूलसे युक्त थी अतः वह ऐसी प्रतीत हुई कि मानों मंगल चाहने - वाली सुलोचनाने प्रश्नवाचक चिह्न ही अंकित किया हो कि ये मेरे पति बनें ॥ १५ ॥ . अन्वय : नृपः ससाहसं आह या मे तनया तु साम्प्रतं चेत् प्रदेया अस्ति तदा भवतां प्रसन्नपादपरिणेत्री भवतात् इति ममानुवादः वरम् ! अर्थ. इस प्रसंगको देखकर महाराज अकम्पन साहसपूर्वक बोले कि यह मेरी पुत्री इस समय देने योग्य है तो यह आपके प्रसन्न चरणोंकी सेवा करने योग्य बनें, यही मेरा दृढ़ संकल्प है ।। १६ ॥ अन्वय : इह्यः पयोद : अभिलाषभृते चातकाय उदं न परियच्छन् अथ प्रतिनिष्कासयते पर्वताय ददाति स किमु विचारकृत् अस्ति वा । अर्थ : (हे वरराज), जो मेघ पानी चाहने वाले चातकको तो पानी नहीं देता, किन्तु पर्वतको पानी देता है जो कि उसे बाहर निकाल देता है, अतः वह मेघ विचारशील नहीं है । ( कहनेका आशय यह है कि जब आपका इस कन्याके साथ अनुराग है तो आपको ही देना चाहिये ) ॥ १७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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