SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 575
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५२ जयोदय-महाकाव्यम् [८९ परिणामो थस्याः सापि चायिका क्षमा सहिष्णुता यस्यां सा, समुद्रेण तान्ता व्याता कमधिकृत्य क्षमा पृथ्वी यस्याः सा जलसहितपृथ्वीमती। सुवर्णभावाद्ध मसद्भावाच्च सुरीतेः शोभनस्य पित्तलस्य कौति विरोधे, सुवर्णभावाच्छोभनरूपत्वात् सुरीणां स्वारीणामपि कों दौर्गत्यकारिणी। तथैवोच्चवर्णभवत्वात्सुरीतेः सदाचारवृत्तेः की। सल्या गणनामतिगच्छतो त्येवंभूतोऽनुभावो यस्याः सा पि पुनः समुक्तः सम्यग्वणितोऽङ्गविधिद्विव्यादिगणनाप्रकारो यस्याः सा, इति विरोधे सङ्ख्याति प्रसिद्धि गतोऽनुभावो यस्याः सा, एवम्भूता सतो मुकाभिनौक्तिकैः सहितोऽङ्कानामाभूषणानां विधिर्यस्याः सा, अथवा संख्याति सम्यङ्नामगतोऽनुभावो मङ्गलकरीति प्रकारो यस्या सा, मुक्तैः संसारातीतैः सहितोऽङ्कस्य स्थानस्य विधिर्यस्या सैवम्भूता या स्वभावाटेव समस्ति ॥ ८८ ॥ स्फुरत्कराग्रा मृदुपल्लवा चाधरश्रिया नाधिकलम्बवाचा । समस्ति सद्यःस्मितपुष्पिताऽऽभ्यां नवा लतेयं फलिता स्तनाभ्याम् ।।८९॥ स्फुरदित्यादि । इयं न विद्यते बालता यस्याः सा न बालता नवयौवनवती, सैव नवा लता नवीनवल्लरी, यतः स्फुरन्ति कराग्राणि नखा यस्याः सा, पक्षे स्फुरन्ति कलं मनोहरमग्रं पुरस्ताद्भागी यस्याः सा, मृदव : सुकोमला: पदोश्चरणयोलवा विलासा यस्याः सा, पक्षे, किसलया यस्याः सा । नाधिकोलम्बोदीर्घोऽसाविति वाक्, यस्यास्तयाऽधरश्रिया शोभया, पक्षे नास्त्याधिर्नाम वाधा यस्य स चासो कलम्बो नाम लता होती है-यह तो परस्पर विरुद्ध है, अतः इसका परिहार भी है-कि सुलोचना समुद्रसे अर्थात् मुद्रा-अंगूठी प्रभृति भूषणवृन्दसे व्याप्त है और अति सहनशील है; सुवर्णके सद्भावसे पीतलका निर्माण करती है-यह विरुद्ध है, इसका परिहार है-उच्चवर्णमें उत्पन्न होनेसे सदाचारका वातावरण बनाती है; सौन्दर्य के सद्भावसे दिव्याङ्गनाओंका पराभव करती है; सुलोचनाका प्रभाव गणनातीत है फिर भी वह दो-तीन आदि अङ्कोंकी विधिसे गणनाद्वारा गिना जाता है-- यह तो विरोध हुआ, इसका परिहार-कि इसका प्रभाव प्रसिद्ध है और आभूषण मोतियोंसे जड़ा हुआ है.-इन विरोधाभासगर्भ विशेषताओंसे वह स्वभावतः विभूषित है ।। ८८ ।। अन्वय : स्फुरत्कराग्रा मृदुपल्लवा नाधिकलम्बवाचा अधरश्रिया च (उपलकिता) स्मितपुष्पिता द्वयं नवालता आभ्यां स्तनाभ्यां सद्यः फलिता समस्ति । अर्थ : सुन्दर नखों ( मनोहर अग्रभाग ) से युक्त; कोमल पैरोंकी सुषमा ( कोमल कोंपलों ) से सम्पन्न; ओर अधिक वचनाके प्रयोग ( व्याधि ) से रहित अधरोष्ठ ( कोमल पत्तों ) की छविसे उपलक्षित; मुस्कानरूप पुष्प (खिले फूलो) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy