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________________ ५४६ जयोदय-महाकाव्यम् [७९ स्वरमकारादि वणं गच्छति तन्नामाभिधानं तेना नमिता समुन्नता सती रुचा कान्त्या साध्वी सम्पूर्णवर्णमात्रिकाधिकारिणीयं मम चेतोऽन्तःकरणमाप प्रापत् ॥ ७८॥ नवालकेनाधरता प्रबाले मुखेन याऽमानि सुदन्तपालेः । सुपा (धा) किने मे मधुलेन सालेख्यतः सुधालेन विधौ सुधाले ॥७९।। नवालकेनेत्यादि । शोभना दन्तानां पालिः पक्तिर्यस्यास्तस्या अमुष्या मुखेन, कीवृशेन नबालकेन, नवा नवीना अलकाः केशा यस्य तेन, अथ च बालको न भवतीति तेन नबालकेन तेन प्रवाले विद्र मे पल्लवे च का प्रकर्षेण बालकरूपे तस्मिन्नधरोष्टरूपता रदच्छदतुल्यताऽथवा ततोऽप्यपकर्षगुणताऽमानि स्वीकृता। कीदृशेन सुष्ठु धाकः प्रभावो यस्य तस्मै, किंवा सुधयाऽप्यकं दुःखं यस्य तस्मै सुधाकिने में मह्यमथ मधुलेन लिष्टन मधुयुक्तेनापि पुनरसुधालेन सुधां मुखोत्पाटनकारिणी प्रस्तरविकाररूपां चूर्णेत्यपराभिधानां न लाति स्वीकरोतीति तेनासुधालेन, अत एवासूनां प्राणानां धारा परम्परा यत्र तेन पुनः सुधालेऽमृतकिरणे, एव चूर्णपूर्णे विधौ चन्द्रऽप्यधरता न्यूनगुणवत्ताऽलेखि समुल्लेखिला ॥ ७९ ॥ प्रस्तुत पद्यका दूसरा अर्थ-समोचीन ऊष्मवर्ण-श ष स ह, एवं अन्तःस्थवर्ण-य र ल व से उपलक्षित मु-म वर्ग अर्थात् पवर्ग-प फ ब भ म एवं कु-क वर्ग अर्थात् क ख ग घ ङ - इन वर्णो से विभूषित स्तनोंसे टवर्ग-ट ठ ड ढ ण की रक्षिका, तवर्ग-त थ द ध न से युक्त, चवर्ग-च छ ज झ ञ को अपनी सम्पदा समझने वाली ( चुरा) तथा अकार आदि समस्त स्वर और उनके अङ्गोंके नामके अपूर्व ज्ञानसे समुन्नत होती हुई, कान्तिसे साध्वी सुलोचना सभी वणों एवं मात्राओंकी अधिकारिणी है उसने मेरे मनको अपने अधिकार क्षेत्रमें ले लिया है ।। ७८ ॥ ___ अन्वय : सुदन्तपाले: नवालकेन मुखेन प्रवाले या अधरता अमानि सुपा (धा) किने मे मधुलेन असुधालेन सुधाले सा अलेखि । अर्थ : सुन्दर दन्तपंक्तिवाली सुलोचनाके अभिनव केशपाशसे विभूषित मुखने मुगे और पल्लवमें जो अधरता-ओष्ठता या गुणोंकी अपकर्षता मानी वह ठीक ही है; क्योंकि मुख वालक नहीं, प्रौढ़ है और प्रबाल अभी शिशु है यहाँ श्लेषके कारण व और ब अभेद है, अतः नवालकेनके स्थानमें नबालकेन और प्रवालेक स्थानमें प्रबाले मानकर यह भी अर्थ किया गया है तथा अनुकूल कर्मपाक एवं प्रभावसे युक्त तथा सुधा-अमृत भी जिसे दुःखप्रद है-ऐसे मेरे लिए मधुर एवं सुधा-चूनेको अस्वीकार करनेवाले ( सुलोचनाके ) मुखने अमृतगर्भकिरणों ( चूनेके चूर्ण ) से युक्त चन्द्रमाके विषयमें भी उसी अधरताका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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