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एकादशः सर्गः
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पुन्नागेत्यादि । सा नागकन्या जगत्प्रसिद्धरूपवत्यपि यतो यस्या अपेक्षया जघन्या होनैव स्यावेतादशीयमस्ति । यस्मादियं पुम्सु नागस्य पुरुषश्रेष्ठस्य पुत्रीति वर्णाधिकापि ततोऽसौ पवित्री कृताऽवनिः पृथ्वी यया सा पवित्रीकृतावनिः, इति हेतोरहो अत्र पुनरस्याः का तुला तुलना भवित्री, किन्तु नैव भवित्रीत्यर्थः। यतश्च, किन्नरीणान्तु नुमैव संव धन्या प्रशंसायोग्या ? क्व यतस्ताः कुत्सिता नरी, किन्नरीति संज्ञां गताः सन्ति, किं पुना रूपमिति ॥ ७३ ॥
ये येनिमेषा विचरन्तु ते तेऽप्सरस्सु नो मे तु मनोतिशेते । इमामिदानीं मम सौमनस्यं सुधाधुनी मेतितरामवश्यम् ।। ७४ ॥
ये य इति । ये ये केऽपि, अनिमेषा निमेषरहिता देवा झपाश्च ते ते पुनरप्सरस्सु स्वर्वेश्यासु, अपां जलानां सरस्सु स्थानेषु विचरन्तु, पर्यटन्तोऽमी सुखमनुभवन्तु, किन्तु मे मनस्तत्र नातिशेते, नातिशयं स्वीकरोति । मम तु सौमनस्यं सच्चित्तत्त्वं देवत्वमिव न वश्यमवश्यं चञ्चलं भवदिदानीमिमां सुधाधुनीममृतनदीमेवैति तरामिति ॥ ७४ ॥
अत्र का तुला भवित्री किन्नरीणां तु नुमा एव धन्या क्व (तुला)। ___ अर्थ : वह प्रसिद्ध नागकन्या भी सौन्दर्यकी दृष्टिसे सुलोचनाकी अपेक्षा जघन्य है; क्योंकि यह पुन्नाग-श्रेष्ठ पुरुषकी पुत्री है, पर नागकन्या, नागकी । तथा इसने समस्त पृथ्वीको पवित्र किया है (पर नागकन्याने केवल नागलोकको) । ओह ! सुलोचनाका सौन्दर्य जब नागकन्यासे भी बढ़कर है तो इस संसारमें इसके रूपकी क्या तुलना हो सकती है ? अब रही किन्नरियोंको बात, सो उनका तो नाम (नुमा) ही धन्य है ! (कुत्सिता नरी किन्नरी), फिर उनके रूपकी तुलना कहाँ ?
नैषधके टीकाकार नारायणने लिखा है कि पाताल, स्वर्गसे भी कहीं अधिक सुन्दर हैं- 'स्वर्गादप्यतिरमणीयानि पातालानि' । नागकन्याका निवास पातालमें माना गया है । कवि संसारमें नागकन्याकी सुन्दरता प्रसिद्ध है। पर सुलोचनाकी सुन्दरता तो सर्वथा अनुपम है ।। ७३ ।।
अन्वय : ये ये अनिमेषाः ते ते अप्सरस्सु विचरन्तु मे तु मनः नौ अतिशेते मम अवश्यं सौमनस्यम् इदानीम् इमां सुधाधुनीम् एतितराम् ।।
अर्थ : जो भी कोई अनिमेष-देव (मत्स्य) हों वे अप्सराओं (जलाशयों) में भले ही विचरण करें, पर मेरा मन तो उन्हें (अप्सराओं व जलाशयोंको) तनिक भी महत्त्व नहीं देता। मेरा उदात्त मन (देवत्व) किसीके भी वशमें नहीं आ सकता । इस समय वह (सौमनस्य) केवल इस अमृतकी नदी अर्थात् सुलोचनाको ही प्राप्त कर रहा है-चाह रहा है ॥ ७४ ॥
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