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________________ ५४० जयोदय-महाकाव्यम् [६७-६८ मिहानयोः सुदूरवशित्वमुपहर्तु प्रदातुमिव कर्तुविधातुः श्रुती कौँ, द्रव्यभावरूपे शास्त्रे च तयोश्चक्षुषोरन्ते समीपे निहिते स्थापिते स्त इत्युप्रेक्षाश्लेषयोः सङ्करः ॥ ६६ ॥ दग्धं क्रुधा कामधनुर्हरेण पुनर्जनिं तद्विधिनादरेण । प्राप्य भ्रु वोयुग्ममिषेण सत्याः सुबालभावं लभते सुदत्या ।। ६७ ॥ दग्धमिति । यत्खलु कामस्य धनुस्तत्क्रुषा कोपेन हेतुना हरेण रुद्रण दग्धं भस्मीकृतं, तदेव विधिना भाग्येनादरेण योग्यरूपेण पुननि द्वितीयं जन्म प्राप्य सत्या अमुष्याः सुदत्या भ्र वोयुग्ममिषेण शोभनं बालभावं शिशुस्वं केशत्वञ्च लभते, इत्युप्रेक्ष्यते ॥ ६७ ॥ सत्कतु मुच्चैः स्तनहेमकुम्भौ भ्रातर्विधाता यतते स्वयम्भोः । तेजांसि तूत्तेजयितु हि नासामिषेण भस्त्रा रचिता तथा सा ॥६८॥ सत्कर्तुमिति । भो भ्रातः, उच्चरूपौ स्तनो कुचावेवातिशयेनोच्चैः स्तनौ तौ हेमकुम्भौ सुवर्णकलशो सत्कतुं समुज्ज्वलयितुं किल तेजांसि कान्तिरूपाणि वह्विलक्षणानि च चोत्तेजयितुं संवद्धयितुं स्वयं विधाता यतते । तथा च नासाया मिषेण भस्त्रा वायुसंवद्धिनी रचिताऽस्ति सेति यावत् ॥ ६८॥ चञ्चल होनेसे कज्जल-युक्त हैं। इन्हें मानों दूरदर्शित्व प्रदान करनेके लिए आदि विधाताकी ( द्रव्य और भाव ) श्रुतियों ( कानों ) को उनके ( नेत्रों ) के निकट स्थापित किया गया ।। ६६ ।। अन्वय : (यत्) कामधेनुः हरेण क्रूधा दग्धं पुनः तत् विधिना आदरेण जनि प्राष्य भ्र वोः युग्ममिषेण सत्याः सुदत्याः सुबालभावं लभते ।। ____ अर्थ : जो कामदेवका धनुष भगवान् शङ्करके द्वारा क्रुद्ध होकर जला दिया गया था, वही भाग्यवश योग्यरूपसे पुनर्जन्म लेकर शोलसम्पन्न एवं सुन्दर दाँतों से सुशोभित इस सुलोचनाके दोनों भौंहोंके बहाने सुन्दर बालभाव (शैशव, भौहोंके बाल) को प्राप्त कर रहा है । ६७ ॥ अन्वय : भोः भ्रातः ! उच्चैःस्तन हेमकुम्भी सत्कतु तेजांसि च उत्तेजयितु हि स्वयं विधाता यतते तथा नासामिषेण सा भस्त्रां रचिता। अर्थ : हे भाई ! सुलोचनाके समुन्नत स्तनरूपी स्वर्णकलशोंको और अच्छा करनेके लिए तथा उनकी चमक (अग्नि) को और तेज (प्रज्वलित) करनेके लिए-पालिश चढ़ाने के लिए निश्चय ही विधाता-ब्रह्मा स्वयं यत्न कर रहा है और (उसने अग्निको प्रज्वलित करनेके लिए सुलोचना को) नासिकाके बहाने वह धोंकनी बना दी है ॥ ६८ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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