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________________ जयोदय-महाकाव्यम् [ ५९ अव्यक्तेत्यादि । एष नतभ्रुवोऽधरपल्लवः स्वभावावेव मन्मथ एव मन्त्री कार्मणकरस्तेन वा समङ्कितं लिखितं यतोऽव्यक्तलेखेनाङ्कितं तथा व्यक्ताभिलेखाभिरङ्कितं ततो जगन्मोहकरं नाम यन्त्रमेव शस्तं प्रशंसायोग्यमित्यवाप्नोति तावत् ॥ ५८॥ स्वयं सदा सैकतलक्षणायाः श्रीविद्रुमच्छायतया रमायाः । मरोस्तुलामेत्यधरोऽथवाऽस्या यतः पिपासाकुलितश्च ना स्यात् ।।५९।। स्वयमिति । अथवाऽस्या रमायाः शोभनायाः स्वयमेव सती याऽऽशाऽभिलाषा तस्या एक तलं तस्य क्षण उत्सवो यस्या उत्तमाभिलाषवत्या इति । किञ्च सदा सिकताया इवं सकतं धूलिप्रायं लक्षणं यस्या इति यतो ना मनुष्यः पिपासाकुलितोऽभिलाषावानुत जलाभावात्तृष्णावान् स्यात्, स एषोऽधरो रदच्छदभागो वित मस्य प्रवालस्य च्छायेव च्छाया शोभा यस्य तद्भावतया तथैव विगता द्रमाणां वृक्षाणां च्छाया यस्मात्तद्भावतया मरोनिर्जलदेशस्य तुलामेति ॥ ५९॥ अन्वय : नतभ्र वः अधरपल्लवः स्वभावात् मन्मथमन्त्रिणा वा समङ्कितं (यतः) अव्यक्तलेखाङ्कितं (तथा) जगन्मोहकरं यन्त्रं शस्तम् (इति व्यवहारम्) एति। · अर्थ : दोनों ओर झुकी हुई–कमानीदार भोहोंसे युक्त सुलोचनाका अधरोष्ठ-नीचेका होठ स्वभावतः अथवा कामदेवरूपी मन्त्रीके द्वारा लिखा गया ( यन्त्र ) प्रतीत होता है : क्योंकि यह अव्यक्त-अस्पष्ट लेखसे अङ्कित है, अतएव जगत्को मोह उत्पन्न करने वाला यह यन्त्र प्रशंसाके योग्य है-'बहुत अच्छा है' इस व्यवहारको प्राप्त हो रहा है ॥ ५८ ।। अन्वय : अथवा स्वयं सदासकतलक्षणायाः अस्याः रमायाः यतः ना पिपासाकुलितः स्यात् (सः) अघरः विद्रुमच्छायत्या मरोः तुलाम् एति । अर्थ : अथवा स्वतः उत्तम अभिलाषाओंसे युक्त (स्वतः सदा बालकामय प्रदेश-टापू सरीखे ( नितम्ब आदि चिह्नोसे युक्त ) इस शोभासम्पन्न सुलोचनाके जिस ( ओष्ठ ) से दर्शक पानकी अभिलाषा (प्यास ) से आकुल-बेचैन हो उठता है, वह ( ओष्ठ ) मूगेकी शोभा ( वृक्षोंकी छायाके अभाव ) से मरुस्थल (रेगिस्तान)की समानताको प्राप्त कर रहा है। अभिप्राय यह कि सुलोचना बालुकामय टापू जैसे नितम्ब आदि चिह्नोंसे चिह्नित है, और उसका लालरंगका अधर रेगिस्तानके समकक्ष हैं, क्योंकि जिस प्रकार रेगिस्तानमें, जो वृक्षोंकी छायासे रहित होता है, मनुष्य प्याससे व्याकुल हो जाता है, उसी प्रकार सुलोचनाके अधरोष्ठको देखकर मानव उसके पान करनेकी आशासे आकुल हो जाता है ॥ ५९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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