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________________ ५३ ] एकादशः सर्गः समायात् । यद्वा रुखं रुवर्णाभावस्तस्माद् पुषः पोषणानि वा कथं न लभेत, यतो वसुधामतीत्य वर्तते तद्वसुधातिवति स्वर्गीयं सुखं स्यात्, तथा सुकारप्रणाशः स्यात्तेन वधातिवति नित्यरूपं तदिति चार्थः । तुषारस्य रुगिव रुक् कान्तिर्यस्य स हिमकरश्चन्द्रमाः स किमाबिति तु, तुकाराभावमाप्नोति, आरः शनिस्तस्य या महतो रुगिव रुग्यस्य स श्यामलो भवति । स मातुर इति पाठान्तरे रुग्णः प्रसङ्गात् क्लैव्यसम्पन्नः स पुनस्तु खमाबिभति, स मारः कामातुरो भवति यन्मुखं दृष्ट्वेति ॥ ५२ ॥ स्मितामृतांशोरपि कौमुदीयं रुचिः शुचिर्वाक्यमिदं मदीयम् । वेलातिगानन्दपयोधिवृद्धिलॊकस्य नो कस्य पुनः समृद्धिः ।। ५३ ।। स्मितेत्यादि । इयमस्याः सुलोचनायाः स्मितमेवामृतांशुश्चन्द्रस्तस्य स्मितामृतांशोरोषद्धास्यरूपेन्दोः कौमुदी चन्द्रिका रुचिर्मनोहरा, शुचिरवदाता चेति मदीयमिदं वाक्यमस्तीति शेषः । यस्यावलोकनेन कस्य लोकस्य पुरुषस्य वेलामतिगच्छतीति वेलातिगाऽतिक्रान्ततटा, आनन्द एव पयोषिहर्षसागरस्तस्य वृद्धिः पुनः समृद्धिहर्षसम्पत्तिश्च नो भवति ? सर्वस्यैव भवतीति भावः ॥ ५३॥ न करे तथा उस (मुख) की पुष्टि क्यों न हो? जिससे भूतलका सर्वातिशायी एवं स्थायी सुख प्राप्त हो। किन्तु (उसे देखकर) चन्द्रमा क्या धारण करता है ? वह तो (सलोचनाके मखका अवलोकन करके) शनिग्रह-सरीखी कान्तिको प्राप्त करता है (आरसक्) काला पड़ जाता है। तुषाररुक्के स्थानमें 'समातुरः' पाठ रहे तो 'तु' का लोप होनेपर 'स मारः' शेष रहेगा, जिसका अर्थ होगा वह प्रसिद्ध कामदेव जिसे देखकर कामातुर हो जाता है। ___ प्रस्तुत पद्यके चारों चरणोंके जिन (मुखं, रुखं, सुखं, तुखम्) वर्णो के आगे 'खं' है उनका लोप विवक्षित है। जैसे 'मुखं' में 'मु' का लोप 'इत्यादि । ऊपरके अर्थमें इसका भी ध्यान रखा गया है ॥ ५२ ॥ अन्वय : अपि (च) मदीयम् इदं वाक्यम्-इयं कौमुदी (अस्याः) स्मितामृतांशोः शुचिः रुचिः (यस्यावलोकनेन) पुनः कस्य लोकस्य वेलातिगानन्दपयोधिवृद्धिः समृद्धिः (च) नो (भवति)। अर्थ : और मेरा यह कहना है कि यह ज्योत्स्ना-चाँदनी इस सुलोचनाके मन्दहासरूपी चन्द्रमाकी धवल तथा मनोहर कान्ति है, (सत्य है; क्योंकि) इस (स्मितचन्द्र) के अवलोकनसे किस व्यक्तिका सीमातीत आनन्दका सागर वृद्धिगत नहीं होता, एवं किसे हर्ष सम्पदा नहीं मिलती अर्थात् किसे अपार हर्ष नहीं होता ? (सभीको होता है) ।। ५३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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