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४४-४५ ]
एकादशः सर्ग
करः स्मरैरावतहस्तिनस्तु शेषावतारो जगते समस्तु । सौन्दर्यसिन्धोः कमलैककन्दोपमो भुजोऽसौ विशदाननेन्दो ॥ ४४ ॥
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कर इति । इवम् सुस्पष्टम् ॥ ४४ ॥
अस्यैव सर्गाय कृतः प्रयासः पुरा सरोजेषु मयेत्युपाशः । विधिश्च सौन्दर्यनिधेरुदारः करे च रेखात्रितयं चकार ।। ४५ ।।
अस्यैवेति । मयाऽस्यैव सौन्दर्यनिधे रामणीयकशेवधेः सुलोचनायाः करस्य सर्गाय निर्माणाय पुरा सरोजेषु पङ्कजरचनास्वित्यर्थः । प्रयास उद्यमः कृत इत्युपाशः प्राप्ताभिलाष उदारो विधिस्तस्याः करे पाणी रेखात्रितयचकार । कमलनिर्माणऽभ्यासं कृत्वा तत्करमरचयदित्यर्थः ॥ ४५ ॥
उसका जो उच्छिष्ट भी भाँति, जिसे सारा जगत् देख सकता है, बचा हुआ केवल अङ्कर ही रहा ॥ ४३ ॥
अन्वय : स्मरैरावतहस्तिनः करः जगते शेषावतारः समस्तु सौन्दर्यसिन्धोः विशदाननेन्दाः असौ भुजः तु कमलैककन्दोपमः ( समस्ति ) ।
अर्थ : कामदेवरूपी ऐरावत हाथीका सुण्डादण्ड जगत् के लिए भले ही अनुभव शेषनागका अवतार हो, पर जो ( सुलोचना ) सौन्दर्यका सागर है और जिसका मुखचन्द्र सदा स्वच्छ या निर्मल रहता है, उसकी यह भुजा कमलकी जड़ ( लक्षण या मृणाल ) की ही उपमाको धारण कर सकती है ।
कवि-संसार में ( पुरुषों ) के भुजका उपमान हाथीका सुण्डादण्ड है, पर सुलोचना अनिन्द्य सुन्दरी, अनुपम नायिका है, अतः इसकी भुजाकी उपमा जिस किसी हाथीकी सड़से नहीं दी जा सकती - ऐसी स्थिति में कोई सुझाव दे कि कामदेवरूपी ऐरावतकी सड़की उपमा दी जाये, तो कविका कहना है कि नहीं दो जा सकती; क्योंकि वह बहुत लम्बी है और कठोर भी, अत: वह तो शेषनागके अभिनव अवतार-सी प्रतीत होगी । सुलोचनाकी बाँह गौर है और कोमल, अतः उसकी उपमा केवल कमलकी जड़ या मृणाल से ही दी जा सकती है || ४४ ॥
अन्वय : अस्य सौन्दर्यनिधेः एव सर्गाय मया पुरा सरोजेषु प्रयासः कृत इति उपाशः उदार: विधिः च करे च रेखत्रितयं चकार ।
अर्थ : इस सुन्दरताके भंडार ( अर्थात् सुलोचना ) के ही निर्माणके लिए मैंने ( ब्रह्माने ) पहले कमलोंके निर्माणका अभ्यास किया। इससे सफलता की आशा पाकर उदार ब्रह्माने ( इस सुलोचनाके शरीका निर्माण किया ) और
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