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________________ ५२८ जयोदय-महाकाव्यम् [ ४३ विश्व इति । लावण्यगुणार्णवस्य सौन्दर्यपरिणामसमुद्रस्याणेर्वेलाया अमुष्याः पद्मः पदोर्मा यत्र स चरणसादृश्यधरः पङ्कजपदार्थः सोऽपि पाणेर्हस्तस्य तदपेक्षयाधिककोमलस्य तुला नाहति न प्राप्नोति । तत्र पुनर्यः पल्लवः पदांशरूपकः किशलयः स च वृत्ति तुल्यतां वाञ्छतीत्यत्र परं केवलं बाल्यमेव भवत्वमेव वस्त्वस्तुः न पुनरन्यत् । बालकात्परोऽनधिकारचर्चा न करोतीति यावत् ॥ ४२ ॥ भुजो रुजोकोऽम्बुजकोषकाय करं त्वमुष्याः कमलं विधाय । कन्दमकारो जगदेकदृश्यः समुत्करः शेष इहास्तु यस्य ॥ ४३ ॥ भुज इति । अस्याः सुकेश्या भुजो हस्तदण्डः कमलं कोषाग्रसम्भवं फुल्लमस्याः करं हस्तमुत विषाय कृत्वा बलात्कारेण शुल्करूपतया गृहीत्वा, अम्बुजकोषकाय जलजाताय रुजोऽङ्को जातः किलास्वास्थ्यकरो बभूव । यस्य ससुम्कर उच्छिष्टांशो जगतामेकदृश्यः कन्दस्य प्रकारोऽङ्कुरमात्रक इह शेषः समवशिष्टो नागराजो वास्तु, इत्येवं सकं सुखं बदातीति तत्प्रकारः केन बहिणा दश्योऽतएव मुत्करः सर्वस्यापि प्रसन्नतादायकः शेषो नाम सर्पराजः स्वयं जगदे तेनेति यावत् ॥ ४३ ॥ के हाथका उपमान नहीं माना जा सकता ॥ ४१ ॥ ___ अन्वय : लावण्यगुणार्णवाणेः पाणे: यत्र तु पद्मः तुलां न अहंति तत्र पुनः पल्लवः वृत्ति वाञ्छति इति तु परं बाल्यं वस्तु अस्तु (इति) विद्मः । अर्थ : सुलोचना लावण्य-('लावण्य' का सरल अर्थ सौन्दर्य है, पर सूक्ष्म दृष्टिसे विचार किया जाये तो इसका अर्थ शरीरकी वह चमक है जिसमें सामने स्थित वस्तु प्रतिबिम्बित हो) गुणको अन्तिम सीमा है । इसके हाथकी बराबरी जहाँ पद्म, जिसमें पैरोंकी शोभा हो, नहीं कर सकता, वहाँ पल्लवकोपल उसकी बराबरीकी इच्छा करे तो यह उसकी नादानी या भोलापन है; क्योंकि उसमें तो केवल पद = पैरका, लव - अंश पाया जाता है-ऐसी स्थितिमें वह उसके हाथकी तुलनाको कैसे प्राप्त कर सकता है। पैरोंकी अपेक्षा हाथोंकी कोमलता अधिक होती है। ऐसे हम समझते है ।। ४२ ।।। अन्वय : अमुष्या भुजः कमलं करं विधाय अम्बुजकोषकाय रुजः अङ्कः (जातः) यस्य समुत्करः जगदेकदृश्यः कन्दप्रकारः इह शेषः अस्तु । अर्थ : इस सुलोचनाका भुज (बाँह), कमलको हाथ (हथेली) बनाकर जलसे उत्पन्न अन्य वस्तुओंके लिए अस्वास्थ्यकर हो गया। करका 'टैक्स' अर्थ भी होता है, अतः एक अर्थ यह भी है कि कमलसे टैक्स ले लिया तो अन्य जलोत्पन्न वस्तुओंको चिन्ता हो गई कि उन्हें भी टैक्स देना पड़ेगा, फलतः उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा। कमलको हाथ बनानेके बाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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