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[२९-३०
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जयोदय-महाकाव्यम् सरस्वती या प्रथमा द्वितीया लक्ष्मीश्च सृष्टौ सुदृशां सती या । सर्गस्तृतीयोऽयमितीव सृष्टा चकार लेखास्त्रिवलीति कृष्टा ॥ २९ ॥
सरस्वतीति । सुवृशां सुलोचनीनां सृष्टौ विनिर्माणे या सरस्वती सा प्रथमा, लक्ष्मीश्च द्वितीया, ततः सुन्दरतरा, द्वितीयसर्गस्य प्रथमापेक्षया कौशलपूर्णत्वात् । तथा च सा सती सर्वजनश्लाघ्या, यश्च पुनः सुलोचनारूपः सर्गः स तृतीयः, तृतीयसर्गस्य सर्वथा निर्दोषरूपत्वाच्चेयं सुन्दरतमा वर्तते, इतोब वक्तुं सृष्टा, ब्रह्मा त्रिवलीति कृष्टा तन्नामतः संकृष्टा तिस्रो लेखाश्चकारेति यावत् उत्प्रेक्षालङ्कारः ॥२९॥
अस्या विनिर्माणविघावहुण्डं रसस्थलं यत्सहकारिकुण्डम् । सुचक्षुषः कल्पितवान् विधाता तदेव नाभिः समभूत्सुजाता ॥ ३०॥
अस्या इति । विधाताऽस्या निर्माणविधौ सर्गसमा यवहुण्डं मनोहरं रसस्य स्थलं जलस्थानं सहकारिकुण्डं कल्पितवांस्तदेव पुनरधुना सुचक्षुषोऽस्या नाभिः सुजाग समभूविति मन्येऽहमिति शेषः । उत्प्रेक्षालङ्कारः ॥३०॥ उचित रीति से धूम रहा है। अतएव इसके रथका मार्ग ही (वा) 'त्रिवली' शब्दसे अभिहित है ॥ २८ ॥
अन्वय : सुदृशा सृष्टौ या सरस्वती सा प्रथमा या सती लक्ष्मीः च द्वितीया अयं तृतीयः सर्गः, इतीव स्रष्टा त्रिवली इति कृष्टाः लेखाः चकार ।। ___ अर्थ : नायिकाओंके निर्माणमें सबसे पहली सृष्टि सरस्वती है, इससे भी कहीं अच्छी दूसरी सूष्टि लक्ष्मी है और लक्ष्मीसे भी सुन्दर तीसरी सृष्टि यह सुलोचना है-इन तीनोंमें पहली सृष्टि सुन्दर है, दूसरी सुन्दरतर और तीसरी सुन्दरतम । मानों इसी बातको बतलानेके लिए विधाताने सुलोचनाकी त्रिवली के रूप में तीन रेखायें खींच दी ।। २९ ॥ ___ अन्वय · विधाता अस्याः निर्माणविधी यत् अहुण्डं रसस्थलं सहकारि कुण्डं कल्पितवान् तदेव सुचक्षुषः नाभिः सुजाता समभूत् ।
अर्थ : विधाता-ब्रह्माने इस सुलोचनाके निर्माण करनेमें जो. सुन्दर जलका स्थान सहकारी कुण्ड बनाया था वही सुलोचनाकी नाभिके रूपमें परिणत हो गया है। मकान बनानेके लिए जल आवश्यक होता है और उसके लिए एक कुण्ड बनाकर उसमें जल भरा जाता है। इसी प्रकारसे सुलोचनाके शरीरका निर्माण करते समय विधाताने एक सुन्दर जलपूरित कुण्ड बनाया था, जो बादमें सुलोचनाकी नाभि बन गया। इससे नाभिकी गहराई ध्वनित की गई है ।। ३०॥
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