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५२० जयोदय-महाकाव्यम्
[२६ वक्त्रमिति । पुराऽस्या वक्त्रं मुखं विनिर्माय पुनरस्मिन् मुखे, आह्वावकत्वाच्चन्ट्रोऽयमिति समान्निजस्यासने कमले सङ्कुचति सङ्कोचमञ्चति सति, आकुलता प्रयातागन्ता पाता विरञ्चिरभूवितीव वै सोऽस्या मध्यं न चक्रे विवधे, इत्युत्प्रेक्ष्यते ॥ २५ ॥ गुरोनितम्बाद्वलिपर्वणां तत्त्रयीमधीत्याखिलकर्मणांतः । जुहोति यूनां च मनांसि मध्यस्तारुण्यतेजस्यथ सन्निवध्यः ।। २६ ।।
गुरोरिति । अस्या मध्यो नामावयवो गुरोः स्थूलरूपात्, शिक्षकाच्च नितम्बात् पुरतो बलिपर्वणामुदरत्रिवलिरेखाणां तथा बलिप्रवानमेव यज्ञकरणमेव पर्व येषु प्रतिपादितं तेषां त्रयीमधीत्य समेत्य, पठित्वा च पुनरखिलकर्मणां कर्मकाण्डप्रयोगाणांतः समर्थकः, यूनां जनानां मनांसि तारुण्यतेजसि वही जुहोति । अथ तत एव सन्निबध्यो बन्धनयोग्योऽसौ यथार्थतो जीवहिंसाकरस्यापराधित्वान्मध्यश्च वस्त्रण वध्यते, एव सदेति । सश्लेष उत्प्रेक्षालङ्कारः ॥ २६ ॥
अन्वय : इह पुरा वक्त्रं विनिर्माय तस्मिन् चन्द्रभ्रमात् अस्मिन् निजासने अरं सङ्कचति (सति) धाता आकुलतां प्रवाता इतीव वै मध्यं न चक्रे। .. ___ अर्थ : सुलोचनाके शरीरमें सबसे पहले मुखका निर्माण करके 'उसमें चन्द्रमाके भ्रमसे अपने इस आसन--कमलके नितरां संकुचित होने पर विधाता व्याकुल हो जायगा' मानो यही सोचकर उस (विधाता) ने इस (सुलोचनाकी कमर नहीं बनाई।
विधाता-ब्रह्माका आसन कमल माना गया है-यह प्रसिद्ध है। कवि संसारमें नायिकाओंकी कटिकी कृशताका वर्णन भी प्रचलित है। 'चम्पूभारतम्' के प्रारम्भमें हस्तिनापुरका वर्णन करते हुए उसके रचयिताने लिखा है कि वहाँ एक आश्चर्यकी बात है कि नायिकाओंका अधोभाग जिस ओर जाता है उसी ओर उनका ऊर्ध्वभाग भी। इससे यही ध्वनि निकलतो है कि उनके शरीरमें कटि थी ही नहीं।।
प्रस्तुत पद्यमें भ्रान्तिमान् और हेतृत्प्रेक्षाके साथ अतिशयोक्ति अलङ्कार भी है जो प्रायः सभी अलङ्कारोंका आधार है ।। २५ ॥
अन्वय : गुरोः नितम्बात् वलिपर्वणां तत्त्रयीम् अघीत्य (अस्याः) मध्यः तारुण्यतेजसि यूनां मनांसि जुहोति अथ च (सः) सन्निबध्यः ।
अर्थ : स्थूल (शिक्षक) नितम्बसे उदर-प्रदेशमें स्थित त्रिवलीको पाकर (बलिदान को जिनमें पर्वके रूपमें स्थान दिया गया है उनकी त्रयी अर्थात् वेदत्रयीको पढ़कर) इस सुलोचनाका मध्यभाग (कटि) यौवनकी अग्निमें युवकों
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