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________________ २४-२५ ] एकादशः सर्गः गुरुनितम्बः स्विरोजबिम्बस्तस्मात्कृशीयानयमाप्तडिम्बः । माभूत्क्षमाभूलभतेऽवलग्नं सैषा सुकाञ्चीगुणतो ह्यविघ्नम् ।। २४ ॥ गुरुरिति । इतो गुरुः स्थूलतरो नितम्बः स्वित्तत उरोजबिम्बोऽपि गुरुरस्ति, तस्मादयं कुशीयान्, अतिकशरूपोऽपोऽबलग्नस्तयोमध्यगतस्सन्नाप्तडिम्बो लब्धप्रणाशो माभूदेवं सैषा सुन्दरी काञ्ची गुणतो रसनासूत्रणावेष्टितं कृत्वा किलाविघ्नं निर्वाध लभते क्षमाभूः सहिष्णुस्वभावा ॥ २४ ॥ वर्क विनिर्माय पुरारमस्मिञ्चन्द्रभ्रमात्सङ्कुचतीह तस्मिन् । निजासने चाकुलतां प्रयाता चक्रे न वै मध्यमितीव घाता॥ २५ ।। रहा है। यह दुर्ग अपने ढंगका एक ही है, अतः सुलोचनाकी करधनीके बहाने प्राकारने उसे चारों ओरसे प्राप्त कर लिया। अभिप्राय यह कि सुलोचनाका नितम्ब कामदेवका अजेय एवं परदर्पलोपी दुर्ग है और करधनी उसका परकोटा है ॥ २३ ॥ ___ अन्वय : (इतः) गुरु: नितम्बः स्वित् (?) (ततः) उरोजविम्बः तस्मात् कृशीयान् अयम् आप्तडिम्बः माभूत् (इति) हि क्षमाभूः सा एषा सुकाञ्चीगुणतः अवलग्नम् अविघ्नं लभते । अर्थ : इधर स्थूल (गुरु) नितम्ब स्थित है और उघर-ऊपरकी ओर स्थूल (गुरु) स्तन, इसी कारणसे यह अवलग्न अर्थात् कटि नष्ट न हो जाये इसीलिए क्षमाशीला इस सुलोचनाने अपनी करधनीसे लपेट कर कटिको निर्विघ्न कर पाया है। प्रस्तुत महाकाव्यकी संस्कृत टीकाके आधार पर यह अर्थ किया गया है । टीकामें 'स्वित्' का 'ततः' पर्याय दिया जान पड़ता है। मेरी दृष्टिसे 'स्वित्' का प्रचलित अर्थ 'अथवा' किया जाये तो भी कोई हानि नहीं। 'अथवा' अर्थ मानने पर अनुवाद इस प्रकार होगा-मेरे एक ओर नितम्ब है तो दूसरी ओर स्तन हैं। इन दोनोंमेंसे मेरा गुरु कौन है ? नितम्ब अथवा स्तन ? यों तो दोनों ही गुरु (विशाल) हैं, पर एकको गुरु मानने पर तो मुझे दूसरेका कोप-भाजन बनना पड़ेगा-ऐसी स्थितिमें मेरी रक्षा कौन करेगा ? 'शिवजी रुष्ट हों तो गुरु रक्षा करता है, पर गुरु रुष्ट हो तो कोई भी रक्षा नहीं कर सकता-'शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन'। इसी द्विविधामें अवलग्न (कटि-कमर) अत्यन्त कुश हो गया । कृश होते-होते कहीं नष्ट न हो जाये या भाग न जाये मानो यही सोचकर सहनशीला सुलोचनाने उसे अपनी तगड़ी (करधनी) से वेष्टित कर दिया और उसके विघ्नका निवारण किया ॥ २४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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