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________________ ५१८ जयोदय-महाकाव्यम् [ २२-२३ पराजीयते तदा तरुर्नाम किम् । यत्किल ममात्मने धनसारः कपूर एव वस्तुसमुत्पत्तिस्थानं समुत्पाद्य घनसारकरणमेव योग्यं, न तु निरीक्षणमिति यावत् ॥ २१ ॥ अन्यातिशायी रथ एकचक्रो रवेरविश्रान्त इतीमशक्रः । तमेकचक्रं च नितम्बमेनं जगज्जयी संलभते मुदे नः ॥ २२ ॥ अन्येत्यादि । रवेः सूर्यस्य रथो योऽन्यातिशायी, अन्येभ्यो रथेभ्योऽतिशयवान् यतोऽसावविश्रान्तः कदाचिदपि विश्रामं नैति, स एकचक्र एवैकं चक्रं रथाङ्ग यस्येति श्रुतेरितीव किलेगशक्रो मदनमथवा यो जगज्जयो विश्वविजेता स च नोऽस्माकं मुदे, तं सुप्रसिद्धमेकं चक्रं परिमण्डलं यस्यैवंभूतमेनं नितम्ब संलभते ॥ २२ ॥ स्मरार्थमेकः परदपलोपी दुर्गः पुनर्दुर्लभदर्शनोऽपि । नितम्बनामा रसनाकलापच्छलेन शालः परितस्तमाप ।। २३ ।। स्मरार्थमिति । स्मरार्थ कामदेवायायं नितम्बनामा दुर्गा दुर्गमस्थानविशेषः, दुर्लभं वर्शनं च यस्य, कि पुनर्गमनं, परेषां प्रति पक्षिणां वपंलोपी मदमर्दनकर एक एव विद्यते। तत एव तं परितो रसनाकलापच्छलेन काचोवाममिषेण शालोऽपि प्राकारोऽप्याप प्रापत् ॥ २३॥ युवती रम्भा नामक अप्सरा पराजिय हुई। अब रहा रम्भातरु--कदलीवृक्ष, सो वह तो दूर ही रहे; क्योंकि रम्भा-अप्सरा तरुणी (तरूं नयतीति तरुणी'इस व्युत्पत्तिके अनुसार लकड़ी ढोने वाली) होनेके कारण जीत ली गयी तो तरु वृक्ष पर विजय पाने में क्या रखा है ? मेरे लिए कपूरका उत्पादक स्थान प्राप्त हो जाये तो कपूर मिलने में क्या कठिनाई हो सकती है ? ।। २१ ।। अन्वय : रवेः एक चक्रः रथः अन्यातिशायी अविश्रान्तः इति जगज्जयी इध्मशक्रः च नः मुदे तम् एकचक्रम् एनं नितम्बं संलभते । ___ अर्थ : सूर्यका केवल एक पहियेका रथ अन्य रथोंसे बढ़कर है; क्योंकि वह कहीं विश्राम नहीं करता-निरन्तर चलता ही रहता है। मानो यही सोचकर लोकविजेता कामदेवरूपी इन्द्रने मुझे प्रसन्न करनेके लिए प्रसिद्ध गोल (एक पहिये वाले) इस, सुलोचनाके नितम्ब (नितम्बरूपी रथ) को प्राप्त किया है॥ २२॥ अन्वय : स्मरार्थं नितम्वनामा दुर्गः पुनः दुर्लभदर्शनः अपि परदर्पलोपी एकः रसनाकलापच्छलेन शालः तं परितः आप । अर्थ : कामदेवके लिए नितम्ब नामका दुर्ग (दुर्गम स्थान-किला) दुर्लभ-दर्शन (जिसका दर्शन भी कठिन हो) है फिर भी प्रतिपक्षियोंके अहङ्कारको चूर कर ary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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