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________________ २०-२१ ] एकादशः सर्गः ५१७ स्त्रियाः क्रीडनार्थ भरोः सुवर्णस्य स्तम्भमयी, अन्तः स्फुरन्त्यो पदाङ्गुष्ठयोर्नखांशूनां नखो भूतरश्मीनां राजी पती यत्र सा, प्रेखा बोलेक चेति समाजीजनोऽनुववेत्, मुहुरुच्चरेत् प्रीत्येत्यर्थः ॥ १९॥ जाड्यात्तुगुर्वङ्गमघो विधायासकौ तपोभिः स्विदनिष्टतायाः । सहेत निस्सारतया समस्यां मोचोरुचारुर्भवितुं तु यस्याः ।। २० ॥ जडधाविति । स्विदथवा सको मोचा नाम कवली तु पुनर्यस्या विदुष्या ऊरुश्चार भवितुं जंघासवृशी सम्भवितुं जाडपावेतोगुंङ्ग स्वकीयं स्थूलभागमुत मस्तकमधो विषाय निःसारतयानिष्टतायाः समस्या घटनां सहेत खलु ॥ २० ॥ रम्भाजिता श्रीतरुणी यतः सामुष्याः किलोोः कलिता प्रशंसा । ममात्मने श्रीघनसारवस्तु रम्भातरः सम्प्रति दूरमस्तु ॥२१॥ रम्भेति । यतः किलामुष्या ऊर्वोः प्रशंसा कलिता श्रुता तलः तरुणी रम्भा तरुणवयस्का रम्भा नाम स्वर्वेश्यापि जिता पराजिता साऽथवा तरुं नयतीति तरुणीमणीवत् । ततश्च काष्ठसंवाहिका जाता। सम्प्रति पुना रम्भातरुद्रमेवास्तु, यदा तरुणी स्वयमेव अर्थ : इस विधाता ने इस सुलोचनाकी जनाओं के बहाने दो स्वर्णस्तम्भ और उनके बीच में उसके पैरोंके चमचमाते अंगूठोंकी किरणोंको रस्सी बनाकर रति--कामदेवकी पत्नीके झूलनेके लिए एक झूला तैयार कर दिया है-इसे सामाजिक व्यक्ति भी कहें कि यह रतिका अनोखा झूला है ।। १९ ।। ___ अन्वय : स्वित् असको मोचा तु यस्याः ऊरुचारुः भवितुं जाड्यात् गुरु अङ्गम् अधः विधाय तपोभिः निस्सारतया अनिष्टतायाः समस्यां सहेत ।। अर्थ : क्या यह कदलीस्तम्भ सुलोचनाके ऊरुके समान होनेके लिए अपनी जड़ताके कारण बोझिल अङ्गको नीचे करके अर्थात् उलटा होकर तपश्चरणके द्वारा निस्सारता-जनित अनिष्टताकी समस्याको सुलझा सकता है ? आशय यह कि कदलीस्तम्भ नीचे मोटा और ऊपर पतला होता है, जड़ होता है और निस्सार भो । किन्तु सुलोचनाके ऊरुओंमें ये तीनों दोष नहीं हैं ऐसी स्थितिमें कदलीस्तम्भ उन ऊरुओंकी समानता पानेके लिए क्या उन्मस्तक होकर तपश्चरण कर सकता है ? यदि नहीं कर सकता तो वह सुलोचनाके ऊरुओंके समान भी नहीं हो सकता ॥ २०॥ अन्वय : यतः किल अमुष्याः ऊर्वोः प्रशंसा कलिता (ततः) श्रीतरुणी रम्भा जिता सम्प्रति रम्भातरुः दूरम् अस्तु (यत्) मम आत्मने श्रीघनसारवस्तु । अर्थ : जबसे इस सुलोचनाके ऊरुयुगलकी प्रशंसा सुनी तभीसे श्रीसम्पन्न .org Jain Education International Private Personal Use
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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