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जयोदय-महाकाव्यम्
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प्यभिजातस्तत्कालभव एवात्मनिन्दापरायणतया वालिशोऽप्यभिजात उच्चकुलसम्पन्न एवातिप्रशस्तः॥१३॥
पादद्वयाग्रे नखलाभिधानोऽनुरञ्जितः सन्नधुना सुजानोः । विधेर्वशत्साधुदशत्वशंसः सोमः समस्त्वेष सतां वतंसः ।। १४ ॥
पाद द्वयेत्यादि । एष नलाभिधानः खलो न भवतीत्यभिधावान् नखपर्यायोऽधुना सुजानोः शोभनजानुमत्याः पादद्वयाऽनुरञ्जितः सन् गुणानुरागी भवन्, किञ्च यथोचितशोणितभावं व्रजन् विधेर्वशात् साधु शोभनञ्च यद्दशत्वं तच्छंसो नखानां दशात्मकत्वात्, तथा साधोः सज्जनस्य दशेव दशाऽवस्था यस्थ तत्त्वं शंसतीत्येवमेष सतां नक्षत्राणां प्रशस्तजनानां वा वतंसः शिरोमणिः सोम एव समस्तु इति सम्भावनाख्यानम् । श्लेषोत्प्रेक्षयोः संसृष्टिः ॥ १४ ॥
___ अर्थ : जो पल्लव (कोंपल) प्रसन्नचित्त सुलोचनाके चरणोंकी आंशिक छविको धारण करता है वह पल्लवता (अपने नामकी सार्थकता) को प्रकट करता है, (क्योंकि वह सुलोचनाके पद-चरणका लव-एक अंश है), किन्तु सद्योजात प्रवाल (मूंगा) छोटा (प्रवाल) होकर भी (सुलोचनाके चरणोंकी तुलनामें) अपनी निन्दा कर रहा है, अतः वह कुलीन है ।
विशेषार्थ : पल्लवका अर्थ कोंपल है और प्रवालका अर्थ मूंगा। ये दोनों (पल्लव और प्रवाल) चरणोंके उपमान हैं। कवि संसारमें यह प्रसिद्ध है । सुलोचनाके चरण अत्यधिक लाल है और कोमल भी। पल्लवमें आंशिक लालिमा और कोमलता है, अतः वह सुलोचनाके चरणोंके समक्ष उनका एक 'अंश' मात्र है, अतएव उसका 'पल्लव' नाम सार्थक हैं। तुरन्त उत्पन्न हुआ मूगा लाल तो होता है पर कोमल नहीं होता-इस दृष्टिसे उसके चरणोंकी तुलनामें बच्चा (प्रबाल) है, पर वह स्वयं ही चरणोंके समक्ष आत्मनिन्दा करता है सो ठीक ही है; क्योंकि कुलीन (अभिजात) है ॥ १३ ॥
अन्वय : एषः नखलाभिधानः अधुना सुजानोः पादद्वयाने अनुरञ्जितः सन् विधेः वशात् साधुदशत्वशंसः सतां वतंसः सोमः समस्तु । __ अर्थ : यह नख खल-दुर्जन नहीं है। क्योंकि इस समय सुलोचनाके, जिसके जानु अत्यन्त सुन्दर है, चरणोंके अगले भागमें अनुरक्त (माहुरसे रंगा हुआ, अथ च गुणोंमें आसक्त) है; तथा भाग्यवश सुन्दर अवस्था (दश संख्या एवं सज्जनों सरीखी अवस्था) का सूचक है एवं सज्जनों (नक्षत्रों) का आभूषण है । अतएव ऐसा प्रतीत होता है मानो चन्द्रमा हो ॥ १४ ॥
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