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________________ १२-१३ ] एकादशः सर्गः ५१३ प्रजापतेर्यः शिशुभावमाप्तोऽस्याविग्रहात्स प्रथमोऽपि भावः । पलायते पुष्पशरस्य कर्मकरेण लब्धो वयसा यथावत् ।। १२ ।। प्रजापतेरित्यादि। योऽस्याः सुलोचनायाः प्रथमो भावः पर्यायः प्रजापतेः सृष्टिसम्पादकाच्छिशुभावं बालरूपतामाप्तः स एव पुष्पशरस्य कर्मकरेण कामस्यादेशकारकेण वयसा यौवनेन लब्ध आक्रान्तः सन् विग्रहात पलायते शरीरान्निर्गच्छति । तथा च राज्ञो ज्येष्ठपुत्रतां गतश्च कश्चित् कुसुमबाणवतोऽपि किङ्करेण लब्धः प्रतिकारितः सन् विग्रहाद् युद्धस्थलात् पलायते-इति यथावन्नः प्रतिभाति । बाल्यमतिक्रम्य यौवनमुपढीकते असाविति ॥१२॥ पादैकदेशच्छविभाक् प्रसत्तिभृतः स्वतः पल्लवतां व्यनक्ति । समस्ति यः स्वयस्य तु वाच्यतातत्परः प्रवालोऽपिस चाभिजातः ॥१३॥ पादैकेत्यादि । यः प्रसत्तिभृतः प्रसादयुक्ताया अमुष्या पावस्यैकदेशां छवि शोभां विति, एवं कृत्वा पल्लवतां पदोर्लव एकदेशः पल्लव इति तद्भावं व्यनक्ति प्रकटीकरोति किसलयः स स्वस्य वाच्यतातत्परः सार्थकतापरायणः प्रवाल: कुपलाख्यो भूत्वाऽछोटा रहता है तबतक उसके पैर सर्वथा गूढ़ रहते हैं, पर तरुण होने पर वे गूढ नहीं रहते। यदि वही तरुण सर्प, सर्पभोजी गरुड़ (श्रीवयसा) से आक्रान्त हो तो वह विषकी परिणतिको छोड़कर दूधकी भाँति गुणकारिताको प्राप्त हो जाता है। सर्प का भक्षण करके भी गरुड़ मरता नहीं है, प्रत्युत पुष्ट हो जाता है, जैसे दुग्ध पीनेवाला व्यक्ति पुष्ट हो जाता है ।। ११॥ __ अन्वय : अस्याः यः प्रथमः अपि भावः प्रजापतेः शिशुभावम् आप्तः सः पुष्पशरस्य कर्मकरेण वयसा लब्धः विग्रहात् पलायते (इति) यथावत् (प्रतिभाति)। ____अर्थ : इस सुलोचनाकी जो पहली अवस्था विधातासे 'शैशव' संज्ञाको प्राप्त हुई थी वही कामदेवकी आज्ञापालक अवस्था (यौवन) से आक्रान्त होकर उस (सुलोचना) के शरीरसे भाग गयी–यह बात वास्तविक मालूम पड़ती है। आशय यह कि सुलोचनाका बाल्यकाल चला गया और उसके स्थानमें यौवन आ गया। ध्वन्यर्थ : राजाका ज्येष्ठ पुत्र भी यदि भीरु हो तो वह युद्ध क्षेत्रमें साधारण प्रतिपक्षी राजाके भी कर्मचारीसे आक्रान्त होकर वहाँसे भाग निकलता है। भीरु राजकुमारकी यह स्थिति भी यथावत्-वास्तविक है ।। १२ ।। अन्वय : यः प्रसत्तिभृतः पादैकदेशच्छविभाक् (सः) पल्लवतां व्यनक्ति, यः तु स्वस्य वाच्यतातत्परः स प्रबालः अपि अभिजातः समस्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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