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________________ ५१२ जयोदय-महाकाव्यम् [१०-११ सुवर्णमूर्ती रचितापि यावत्समेति सैषा निरवधभावम् । तेजस्तरैः सङ्गुणिता प्रदृश्या न सस्पृहं कस्य मनोत्र च स्यात् ॥१०॥ सुवर्णेत्यादि । सैषा सुलोचना नाम सुवर्णस्य हेन्नो मूर्तिरिव सुवर्णमूर्तिः शोभनरूपा रचिता सतो तेजस्तरैयौं वनरूपैर्वह्निलक्षणैर्वा सगुणिता पूर्वापेक्षया गुणवत्ता नीता प्रवृश्या भवन्ती यावन्निरवद्यभावं समेति ताववत्र कस्य जनस्य मनः सस्पहं साभिलाषं न स्यात् । सुवर्णघटिता मूर्तिर्वह्निसन्तापनेन स्पृहणीया स्यात्, असौ च यौवनारम्भाविति भावः ॥१०॥ नतभ्र वो भोगभुजाऽभिभूतः समेत्यसौ श्रीवयसा निपूतः । अथोरगो गूढपदोऽपि सत्याः पयोघरत्वं युवतेर्भवत्याः ॥ ११ ॥ नतभ्रव इत्यादि । अथ प्रकरणे योऽसावुरग उरसा गच्छति वक्षसा चलति स स्तनः सर्पश्च स गूढपदः, वाल्यकालतया गूढस्वरूपः, पक्षे त्वस्पष्ट चरणः, स एव सत्या भवत्या नतभ्र वः सुचारुनेत्राया भोगभुजा भोगा इन्द्रियविषया भुज्यन्ते यत्र तेन, पक्ष सर्पभक्षकेण श्रीवयसा यौवनेन 'पक्षे गरडेन निपूतः सम्भावितो यत: खल्वभिभूतस्ततः पयोधरत्वं पीनस्तनभावं पक्षे गरपरिणति त्यक्त्वा दुग्धवगुणकारित्वं समेति ॥ ११ ॥ विचार उत्पन्न हुए। जैसे वर्षा ऋतुमें जलधाराओंको पाकर मानस सरोवरमें तरल तरङ्ग उत्पन्न होते हैं ॥ ९॥ अन्वय : सा एषा सुवर्णमूर्तिः रचिता अपि तेजस्तरैः संगुणिता प्रदृश्या यावत् निरवद्यभावं समेति (तावत्) च अत्र कस्य मनः सस्पृहं न स्यात् । अर्थ : वह सुलोचना यों तो पहलेसे रची हुई सुवर्ण मूर्ति हैं, पर यौवनके तीव्र तेजसे निखार पाकर पहलेसे भी कहीं अधिक सौन्दर्य पानेसे दर्शनीय होकर ज्योंही निर्दोष अवस्थामें पहुँची त्योंही इसके बारे में ऐसा कौन-सा व्यक्ति है, जिसके मनमें स्पहा न हुई हो। जैसे स्वर्णमूर्ति अग्निके सम्पर्कसे स्पृहणीय हो जाती है वैसे ही यह सुलोचना यौवनके प्रादुर्भावसे स्पृहणीय हो गयी ॥ १० ॥ अन्वय : अथ यः उरगः गूढपदः अपि सत्याः युवतः भवत्याः नतभ्र वः भोगभुजा श्रीवयसा अभिभूतः निपूतः असौ पयोधरत्वं समेति । __अर्थ : इसके पश्चात् जयकुमारने अपने मनमें यह सोचा-कि सुलोचनाका जो स्तन उसके बाल्यकालके कारण गूढ-अदृश्य रहा, तो भी वह सतीत्व, यौवन और दोनों ओरसे नीचेकी ओर झुकी हुई भौंहोंसे विभूषित उस (सुलोचना) के भोग भोगने योग्य यौवन (श्रीवयसा) से आक्रान्त एवं प्रभावित हुआ तो पयोधर-प्रौढ़ स्तनकी अवस्थाको प्राप्त हो गया। दूसरा अर्थ-सर्प जबतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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