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________________ ४९६ जयोदय-महाकाव्यम् [ ९५-९६ वेदीमिति । पवित्रितश्चक्रबाटः क्रियासमारम्भो येन तस्य सम्बोधनं हे पवित्रितचक्रवाट, हे भगवन्, आरम्भे भगवन्नामस्मरणत्वात् किल हे प्रभो, अमुकस्य दुर्लभस्य मुवामानन्वसम्पदामधीना दग्दष्टिमनोहरतमां सर्वश्रेष्ठां नवीनां सद्यः सम्पन्नां तां वेदीमाराध्य भुवमालोकितु द्रष्टुमगात्, तावत्तदानीमेव विचारे या चतुरा विचक्षणा भवति सा वाग्वाणी सापि पुनः कवाट कस्यात्मनो वाट कवाट मुखमुद्धाटयति स्म ॥ ९४ ॥ विश्वम्भरस्य तव विश्वमनेन लोकः संशर्म नर्म भुवि भर्म समेत्य शोकः । विघ्नश्च निघ्न इह भाति पुनर्विमोहः क्वाहंकरो जिनदिनङ्कर संवरोह ।। ९५ ॥ विश्वम्भरस्यति। हे जिनदिनङ्कर, जिनवररवे, हे संवरोह, संवराय पापावरोधाय, ऊहो वितर्को यस्य स तत्सम्बोधने, हे पापापहारक, विघ्नस्यान्तरायस्य निघ्नकरसंहारक, संकटहरण, हे विमोह मोहवजित, सर्वज्ञ, तव विश्वम्भरस्य, त्रिलोकनाथस्य विश्वसनेन, अयं लोको मादृशः पुनरिह भुवि पृथिव्यामशोकः शोकरहितः सन् संशर्म शान्तिसौख्यं, भर्म कनकलाभं तेन पुष्टि नर्म विनोदवृत्ति तुष्टिञ्च समेत्य प्राप्य तावदहकर आश्चर्यकारकः क्व भाति ? न क्वचिदपोति भावः ॥ ९५ ॥ हे छिन्नमोह जनमोदनमोदनाय तुम्यं नमोऽशमनसंशमनोदमाय । निवृत्यपेक्षितनिवेदनवेदनाय सूर्याय मे हृदरविन्दविनोदनाय ।। ९६ ॥ अर्थ : हे भगवन् ! इस जयकुमारको हर्षित दृष्टि जब अत्यधिक सुन्दर एवं नवीनतम वेदीकी तरफ पड़ी तो उसी समय विचार चतुर उसकी वाणीने भी मुख खोल दिया, अर्थात् वह बोल उठी ।। ९४ ।। ___अन्वय : (हे) जिनदिनङ्कर ! हे संबरोह । विश्वम्भरस्य तव विश्वसनेन लोकः पुनः इह भुवि अशोकः संशर्म भर्म नर्भ च समेति अहङ्कारः क्वः विघ्नः च निघ्न भाति । अर्थ : हे जिन सूर्य ! हे पापापहारक !• संसारका पालन करने वाले आपके ऊपर विश्वास रखने वालेको पृथ्वी पर, सुख-शान्ति, सम्पत्ति, तथा आनन्द प्राप्त होता है एवं वह व्यक्ति निश्चिन्त हो जाता है फिर उसके पास अहंभाव कैसे रह सकता है ? विघ्न तो हमेशाके लिए नष्ट ही हो जाता है ।। ९५ ।। अन्वय : हे छिन्नमोह ! जनमोदन ! अशमनसंशमनोदमाय मोदनाय निवृत्यपेक्षित निवेदनवेदनाय मे हृदरविन्दविनोदनाय सूर्याय तुभ्यं नमः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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