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________________ ६५-६७ ] दशमः सर्गः ४८५ नेत्रयोर्मध्यात् स्फुटं स्पष्टमेवैकमेकमित्येकैकमदायि दत्तम् । एक वर-वीक्षणेऽपरं जारेक्षणे चेति ॥ ६४॥ वरसान्नयने तु तन्निभे नवतंसोत्पलके पुनः शुभे । भवतां सुदशां विचित्पणमिति नो शुश्रूवतुः श्रुतीक्षणम् ।। ६५ ॥ वरसादिति । नयने नेत्र तु तावद्वरसादुर्लभदर्शनपरायत्तेऽभूतां तथैव कच्चिदेतेऽवतंसोत्पलके नाम कर्णभूषणे तन्निभे नेत्रतुल्याकारे शुभे सुन्दरलक्षणे ते च पुनर्वरसादेव न भवेतामिति चिदश्चेतसो यत्पणं मूल्यं विगतं चित्पणं यथा स्यात्तथा तबुद्धचधीनतामाश्रित्य क्षणं किञ्चित्कालं श्रुती श्रवणावपि सुदृशां सुलोचनानां नो शुश्रु वतुरिति ॥ ६५ ॥ त्वरितातियावशादयोरभियान्त्या द्वितयेन पादयोः । रचितानि पदानि रामयाथतदातिथ्यकृतेऽभिरामया ॥ ६६ ।। त्वरितेति । त्वरितमेव तत्कालमेवापितो यो यावशादो लाक्षाकर्दमा यत्र तयोः पादयोश्चरणयोद्वितयेन, अभियान्त्या गच्छन्त्याभिरामया मनोहरया रामया तदातिथ्यकृते तस्य समागच्छतो वरस्यातिथ्यं तस्य कृते पदानि तावद् रचितानि । अथेति शुभसंवादकरणे ॥६६॥ असमाप्तविभूषणं सतीरधिभित्तिस्खलदम्बरं यतीः । पटहप्रतिनादसंवशा खलु हावलिरुज्जहास सा ॥ ६७ ।। अर्थ : किसी दूसरी स्त्रोने अपने उपपतिको देखकर उसके साथ आलिंगनादिकी उत्कण्ठासे तथा आ रहे वरको देखनेकी इच्छासे एक-एक नेत्रको एकएक तरफ लगाया ।। ६४ ॥ ___ अन्वय : नयने तु वरसात् नवतंसोत्पलके तन्निभे शुभे च पुनः ( वरसात् न ) भवताम् इति विचित्पणम् ( आश्रित्य ) क्षणम् श्रुती सुदृशाम् नो शुश्रुवतुः ।। अर्थ : स्त्रियोंके दोनों नेत्र तो वरके देखने में ही तल्लीन हो गये, ऐसा सोचकर नेत्रोंके सदृश सुन्दर दोनों कर्णफूलोंने 'कहीं हम भी वरकी तरफ न आकृष्ट हो जायँ, इस भयसे स्त्रियोंके फेर में न पड़कर क्षणभरके लिए दोनों कानों का भी सेवन नहीं किया। अर्थात् वे दोनों वरकी बात सुनने में लग गये ।। ६५ ।। अन्वय : अथ त्वरितापितयावशादयोः पादयोः द्वितयेन अभियान्त्या अभिरामया रामया तदातिथ्यकृते पदानि रचितानि । अर्थ : ताजे यावक ( महावर. )को दोनों पैरोमें लगाकर जाती हुई किसी सुन्दर स्त्रीने वरके अतिथि सत्कार में मानो पैरोंका चित्र बना दिया ।। ६६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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