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________________ ४६-४७] नवमः सर्गः ४४१ अपीति । अपि तु ममोपरि तु समीरस्य वायोः यो रयो वेगः स आविर्येषां शोषादीनां तन्मयाः । अथवा समीररयावयो नया मार्गा यासां ताः आपवाः सदा विनिपतन्ति । तथा किमु कस्यचिदपि तडपसंहृतये पिपासानिवृत्तये समुपकर्तुम् अये गच्छामि ? न यामि, यतः किमहं सरिवस्मि ? न कोऽप्युपयोगो ममेति भावः ॥ ४५ ॥ विनतिरस्ति समागमनाय मे समुपधामुपयामि तव क्रमे । न मनसीति भजेः किमु बिन्दुनाप्यवयवावयवित्वमिहाधुना ॥ ४६॥ विनतिरिति । अतस्तव क्रमे चरणे परिपाटयां वा समुपषो सम्भूतिमुपेयामि । समागमनाय मे विनतिरस्ति। हे सागर इत्यामन्त्रणोक्त्या बिन्दुना कि स्यादिति मनसि न भजेस्त्वं यतोऽधुना इह अस्मधुष्मदोः परस्परमवयवावयविभावो विद्यत इत्यर्थः ॥४६॥ त्वमपरोऽप्यपरोऽहमियं भिदा व्रजतु बुद्धिमृदै क्ययुजा विदा । भवति सम्मिलने बहुसम्पदा विरहिता जगतामपि कम्पदा ॥ ४७ ॥ त्वमिति । हे बुद्धिभूव हे धीमन्, ऐक्यं युनतीत्येक्ययुग तया विदा बुधा त्वमपरोऽपि पुनरहमपर इतीयं भिदा भेदभावो व्रजतु दूरीभवतु, यतः सम्मिलने बहुसम्पदा भवति, किन्तु विरहिता तु जगतां जीवानां कम्पदा स्यात् ॥४७॥ अर्थ : और भी, मुझपर तो हवा आदिकी बाधा सदैव आती और सताती रहती है । क्या मैं किसीकी प्यास बुझाने के लिए जाता हूँ, कभी नहीं; क्योंकि मैं तो नदी भी नहीं, जब कि आप समुद्र हैं।॥ ४५ ॥ अन्वय : बिन्दुना किमु इति मनसि न भजेः । इह अधुना अवयवावयवित्वम् अस्ति । ( अतः ) समागमनाय मे विनतिः तव क्रमे समुपधाम् उपयामि । अर्थ : हाँ, फिर भी आप कहीं यह विचार न कर लें कि बिन्दुसे मेरा क्या होना-जाना है ? कारण आप और मुझमें अवयव-अवयविभावरूप सम्बन्ध है। इसीलिए समागम करनेके लिए मेरी आपसे बार-बार बिनती है। आपके चरणोंमें मेरा प्रणाम है ।। ४६ ।। अन्वय : हे बुद्धिभृत् त्वम् अपरः, अहम् अपि अपरः, इयं भिदा ऐक्ययुजा विदा व्रजतु । यतः सम्मिलने बहु संपदा, विरहिता जगताम् अपि कम्पदा। अर्थ : हे बुद्धिमान् महाशय ! आप भिन्न हैं और मैं भिन्न-ऐसा जो भेद है, वह अब ऐक्यभावनासे दूर हो जाय । क्योंकि मिलनमें लाभ ही लाभ है और वियुक्तता तो जीवोंको अत्यन्त भयसे कँपानेवाली है, उससे हानि ही हानि है ॥ ४७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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