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________________ ३६-३७ ] अलमनेन हृदाऽलमनेन सः स्वयमनागतवस्तुलसदृशः । कृतपरिक्रमिणो गतचिन्तिनः क्व कुशलं कुशलं कुरुताज्जिनः ॥ ३६ ॥ नवमः सर्गः अलमिति । हे युवराज, स्वयमनागते वस्तुनि विषये भविष्यति लसन्ती दृग्दृष्टिर्यस्य सस्तस्य भाविविचारकारिणोऽनेनसो निष्पापस्य भवादृशः पुरुषपुङ्गवस्यानेन हुदा मनसाऽलं पुनरलम्, यतः कृतपरिक्रमिणः कृतमेव कुर्वतस्तथा गतचिन्तिनो गतमेव चिन्तयतः क्व कुशलं स्यात् ? किन्तु भगवाजिनः कुशलं कुरुतात् ॥ ३६ ॥ ४३७ जठरवह्निधरं ह्युदरं वदत्यपि च तैजसमश्रुमुगक्ष्यदः । जनमुखे करकृत्कतमोऽधुना हृदयशुद्धि मुदेतु मुदे तु ना ||३७|| जठरेति । यद्भवता जनसाधारणविषये कथितं स तु पुनः जठरर्वाह्य धरतीति जहर. वह्मधर मुदरमुदकं राति स्वीकरोतीत्युदरं जलमयं कथयति तथाऽश्रूणि मुञ्चति तदश्रुमुग् अवोऽक्षि तत्तं जसं तेजोमयं वदति, जनानां मुखे तु करकृत् हस्तदायकः कतमोऽस्ति, न कश्चिदपीत्यर्थः । ना मनुष्यस्तु मुंवे हृ वयस्य शुद्धि पवित्रतामृजुतां वोदेतु प्राप्नोतु, अयमेव मार्गोऽधुना साम्प्रतमस्तीत्याशयः ॥ ३७ ॥ 'गुफासे यह वचन निकला - महाराज युवराज ! क्या संसार में शोक करना श्रेष्ठ या उचित कहा गया है जिसे आप जैसे समझदार भी कर रहे हैं ? ।। ३५ ।। अन्वय : स्वयम् अनागतवस्तुलसदृशः अनेनसः अनेन हृदा अलम् । कृतपरिक्रमिणः गतचिन्तिन: कुशलं क्व ? जिन: कुशलं कुरुतात् । अर्थ : स्वयं भविष्यत्की सोचनेवाले आप जैसे निष्पाप पुरुषको इस प्रकार बीती बातपर चिन्तातुर नहीं होना चाहिए; क्योंकि किये हुए कार्यको ही करते रहना और बीती बातको ही सोचते रहना जिसका काम है, उसकी यहाँ कुशल कहाँ ? भगवान् जिनराज ही तुम्हारा कुशल करें ॥ ३६ ॥ अन्वय : अधुना जनमुखे करकृत् कतमः यत् जठरवह्निधरम् उदरं वदति। अपि च अद: अश्रुमुक् अक्षि तैजसं वदति । ना तु मुद्दे हृदयशुद्धिम् उदेतु । Jain Education International अर्थ : रही दुनियाके कहने-सुनने की बात ! सो तो दुनिया ही है । वह तो जठर-अग्निके धारक स्थानको भी उदर ( जलमये) कहती है और आंसू बहानेवाली आँखको भी तेजस बताती है। दुनिया के मुँहपर हाथ नहीं दिया जा सकता । मनुष्य को तो प्रसन्नता के लिए अपने हृदयको शुद्ध या सरल बना रखना चाहिए ॥ ३७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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