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________________ ४२८ जयोदय-महाकाव्यम् [१४-१५ स्वमथ जीवनमप्यनुजीविनामिह कुतस्त्वदनुग्रहणं विना । मम समस्तु महीवलयेऽमृत शफरता पृथरोमकताभृतः ॥ १४ ॥ त्वमथेति ।हे अमृत, सुन्दर, अथ त्वमस्माकमनुनीविनामनुचराणां जीवनमपि शब्दाप्राणधारकोऽसि । त्वदनुग्रहणं कृपां विना इह महीतले पृथुरोमकताभृतः पक्वकेशवतो वृद्धस्य अषस्य च शफरता, रलयोरभेदात् सफलता झषता वा कुतः स्यात् ? समासोक्तिः। 'पयः कोलालममृतं जीवनं भुवनं वनमित्यमरः ॥ १४ ॥ अपि हठात् परिषज्जनुषां मुदः स्थलमतिव्रजतीति विधुन्तुदः । जनतया नतया स समय॑ते किमु न किन्तु तमः परिवज्यते ॥१५॥ अपीति । अपिअन्यदपिशृणु। विधुन्तुदो राहुः हठात् स्वबलात् परिषत्पङ्कात् जनुर्जन्म येषां तेषां कमलानां मुदः प्रसन्नायाः स्थलं सूर्यमतिव्रजति, तथापि किम नतया जनतया स न समच्यते ? अपि तु समय॑त एव । किन्तु राहुरेव न परिवज्यंते ? अपि तु वय॑त एव ॥ १५ ॥ अर्थ : घोड़ा चंचलताके वश यदि खलित-चरण हो घुडसवारको गिरा देता है, फिर भी उदारदृष्टि वह घुड़सवार क्या उसे मारता है ? स्वामिन् ! प्रस्तुत विषय भी उसी तरह है ॥ १३ ॥ अन्वय : अथ अमृत ! त्वम् अनुजीविनां जीवनम् अपि इह महीवलये त्वदनुग्रहणं विना पृथुरोमकताभृतः मम शफरताः कुतः ? अर्थ : हे अमृत ! फिर आप हम जैसे अनुजीवियों के जीवन, प्राणधारक भी हैं । इस भूतलपर आपके अनुग्रहके बिना मुझ-सरीखे पलित-केश बूढेकी जोवनमें सफलता वैसे ही संभव कहाँ जैसे जीवनरूप जलके अनुग्रहके बिना मछलीकी शफरता ( सफलता = मछलीपन या सफलता ) ॥ १४ ॥ अन्वय : विधुन्तुदः हठात् परिषज्जनुषां मुदः स्थलम् अतिव्रजति इति नतया जनतया सः किमु न समय॑ते ? किन्तु तमः परिवय॑ते । अर्थ :आपसोचते होंगे कि मेरा निरादरहो गया, किन्तु आपका निरादर नहीं हुआ। देखिये राहु हठमें पड़कर कमलोंकी प्रसन्नताके स्थान सूर्यपर आक्रमण कर देता है, फिर भी राहुकी प्रशंसा नहीं होती, बल्कि दुनिया उसको बुरा बताती और विनम्र हो सूर्यका ही आदर किया करती है ॥ १५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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