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________________ ५१-५२ ] अष्टमः सर्गः धनुर्लताया गुणिनस्तु खिन्नः सुलोचकाग्रैकशरेण भिन्नः । अपत्रपः सन्नपरोऽत्र वीरः सम्भोगमन्तः स्मृतवानधीरः ।। ५१ ।। धनुरिति । अत्र प्रसङ्ग े तु पुनर्गुणिनो धैर्यवतो धनुर्लतायाश्चापयष्टेः तन्नामपल्या वा सुन्दरो लोचकः प्रत्यञ्चा वा दृष्टिर्वा तस्याग्रे कशरेण बाणेन कटाक्षेण वा भिन्नो घातमवाप्त:, अत एव खिन्नों । खेदं गतश्च तावताऽधीरो धीरतारहितोऽपरः कोऽपि वीरोंsपत्रपः पत्र वाहनं पाति स पत्रपो न पत्रपोऽपत्रपः अथवा त्रपावर्जितः सन् अन्तः अन्तरङ्ग सम्भोगं भगवन्नाम सुरतं वा स्मृतवान् । 'सम्भोगो जिनशासने' इति 'लोचो मौष्यी चर्मणि च' इति विश्वलोचने । समासेोक्तिरलङ्कारः ।। ५१ ।। तेजोनिधौ सोमसुते प्रतीपा वर्धिष्णुके मृत्युमुख समीपात् । अशक्नुवन्तो ४०३ युगपत्पतङ्गा इवाऽऽनिपेतुर्द' हनेऽनुषङ्गात् ।। ५२ ।। तेजोनिधाविति । तेजोनिधौ प्रतापयुक्ते अत एव वर्धिष्णुके वर्धनशीले मृत्युमुखे मरणकारणे सोमसुते जयकुमारे सति संमुखे अशक्नुवन्तोऽसमर्थाः सन्तोऽपि समीपानिकट अर्थ : सोम ( चन्द्रमा) का उदय करनेवाले सायंकालको निरर्गल रूपसे फैलता देख सूर्य निष्प्रभ होकर छिपने की सोचने लगता है । इसी प्रकार सोमवंशका उदय करनेवाला जयकुमारका अनिर्बाध आगे बढ़ना देखकर निष्प्रभ ( उदास ) अर्ककीर्ति भी कहीं छिप जानेकी सोचने लगा ॥ ५० ॥ अन्वय : अत्र गुणिनः तु धनुर्लतायाः सुलोचकाग्रैकशरेण भिन्नः खिन्नः अपरः वीर: अधीरः अपत्रपः अन्तः संभोगं स्मृतवान् । अर्थ : जैसे किसी गुणवान्की धनुर्लता नामक पुत्रीके कटाक्षरूपी बाणोंसे आहत होकर खेदखिन्न और अधीर कोई कामी निर्लज्जताके साथ अपने अंतरंगमें संभोगकी सोचने लगता है, वैसे ही गुणवान् जयकुमारकी धनुर्लताकी डोरीपर चढ़े बाणसे खेदखिन्न और वाहनसे हीन शत्रुका वीर योद्धा भी अपने अंतरंग में जिनशासनको स्मरण करने लगा । यहाँ श्लिष्ट पदोंसे समासोक्ति अलंकार बनता है ॥ ५१ ॥ अन्वय : तेजोनिधो वर्धिष्णु के मृत्युमुखे सोमसुते अशक्नुवन्तः प्रतीपाः समीपात् युगपत् अनुषङ्गात् दहने पतङ्गाः इव आनिपेतुः । Jain Education International अर्थ : जैसे बढ़ती हुई तेज अग्निमें उसे न सह सकने के कारण आस-पास इकट्ठे होकर फर्तिगे एक साथ आ गिरते और मृत्युमुखमें चले जाते हैं वैसे ही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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