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________________ जयोदय-महाकाव्यम् [ ३०-३१ महीभृतामेव शिरस्सु सौस्थ्यं सदा दधानो विषमेषु दौस्थ्यम् । प्रजासु शम्भुः सविभूतिमत्वं बभार च श्रीमदहीनभृत्त्वम् ||३०|| १८ महीभृतामिति । स जयकुमार: प्रजासु शम्भुः कल्याणकरः, रुद्रश्च सन् महीभृतां राज्ञां शिरस्सु मस्तकेषु पक्षे पर्वतानां शिखरेषु सौस्थ्यं सरिस्थतिमत्त्वम्, विषमेषु विरुद्धगामिषु चौरलुण्टाकादिषु दौस्थ्यं दुस्थितिमत्त्वमसहिष्णुतां, पक्षे विषमेषुः कामस्तस्य दौस्थ्यं वैरभावं वधानः सन् विभूतिमत्त्वं वैभवयुक्तता, पक्षे भस्मधारिताम् । श्रीमन्तश्च अहीनाश्च तान् विभ्राणस्तत्त्वं प्रशंसनीयसज्जनाधिपतां, पक्षे शेषनागघारित्वं च बभार स्वीकृतवान् ॥ ३० ॥ न वर्णलोपः प्रकृतेर्न भङ्गः कुतोऽपि न प्रत्ययवत्प्रसङ्गः । यत्र स्वतो वा गुणवृद्धिसिद्धिः प्राप्ता यदीयापदुरीतिऋद्धिम् ॥ ३१ ॥ नेति । यदीया पदरीतिश्चरणप्रसादः शब्दसश्वारणं च ऋद्धि सम्पत्ति चमत्कारकारितां वा प्राप्ता यत्र वर्णानां ब्राह्मणादीनां पक्षे ककारादीनां, लोपो न भवति । विशेष : जयकुमारमें दयालुता थी तो उसके वैरियोंमें भयालुता । उसमें कोई दूषण नहीं था तो वैरियों के पास भूषण नहीं था । जयकुमारके मस्तक पर कुन्द ( पुष्प ) था तो वैरियों के मस्तकपर भी कुन्द ( आयुध ) था । और जयकुमार दरवालों ( भयभीतों ) का हितैषी था तो उसके वैरी भरवालों ( बोझ ढोनेवालों ) के हितैषी थे ॥ २९ ॥ अन्वय : एषः महीभृतां शिरस्सु सौस्थ्यं विषमेषु दौस्थ्यं च सदा दधानः प्रजासु शम्भुः सविभूतिमत्त्वं श्रीमदहीनभृत्वं च बभार । अर्थ : यह राजा जयकुमार प्रजाका शम्भु अर्थात् कल्याणकारी था, इसी - लिए प्रजामें 'शम्भु' कहलाता था । अतएव वह राजाओं के मुस्तकपर सुस्थिति पाये हुए और शत्रुओं में तो दुःस्थिति फैलानेवाला था । वह वैभवशालिता स्वीकार किये हुए था और श्रीमान् होते हुए कुलीन जनोंका भरण-पोषण करता या उन्हें धारण किये हुए था । = विशेष : कविने यहाँ राजाका महादेवसे श्लेष किया है । महादेव भी पर्वतोंके शिखरोंपर ( महीभृतां शिरस्सु ) रहते हैं और कामदेव ( विषमेषु विषम पाँच संख्या के, इषु = बाणोंवाला ) को नष्ट करनेवाले हैं । वे शरीरमें भस्म माते हैं ( सविभूतिमत्त्वम् ) और ऐश्वर्यशाली शेषनाग धारण किये हुए हैं ( श्रीमदहीनत्त्वम् ) ॥ ३० ॥ अन्वय : यदीया पदरीतिः ऋद्धि प्राप्ता यत्र न वर्णलोपः प्रकृतेः च भङ्गः न, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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