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________________ ८६ ] सप्तमः सर्गः ३६९ राजभावेति । तदानोमेव अरघट्टः 'चक्को'ति लोकभाषायाम्, ततः । अथवा पट्टतोः लोष्ठतो राजमाष इव कटकः सेनासमूहोऽपि च । भेवं द्वधीभावमाप। यस्तु पुनस्ततोऽकंकोतिपार्वतो दररूपस्य ईषवाकारस्य धारकः; अथवा भयधारको यवीममर्ककीति न सम्भालयेयं तदा क्व तिष्ठेयमिति भयत एव सम्भवन् स पुनरिह जयकुमारपार्वत सूपकारकः, सूपं व्यञ्जनं करोतीति सूपकारकः सूदः तथा सुष्टु उपकारको मनसा सहायकरः । श्लेषपूर्वोपमालङ्कारः ॥ ८५ ॥ सोमजोज्ज्वलगुणोदयान्वयाः सम्बभुः सपदि कोमदाश्रयाः। येऽर्कतैजसवशंगताः परे भूतले कमलतां प्रपेदिरे ।। ८६ ।। सोमेति । सोमनामभूपात् तथा चन्द्राज्जातः सोमजस्तस्य य उज्ज्वलो निर्दोषो गुणः सहिष्णुताविः । यता-सोमजश्चासौ उज्ज्वलो गुणः प्रसादस्तस्य उदयं येऽनुयान्ति स्म ते सोमजोज्ज्वलगुणान्वयास्ते । सपदि शीघ्रमेव । कौमुदाश्रया, को भुवि मुदो हर्षस्याश्रयास्तथा कुमुवसमूहस्याश्रयाः सम्बभुः । किन्तु ये परे जनाः केवलमर्कस्य चक्रिसुतस्य सूर्यस्य वा तेजःसमूहस्तेजसं तस्य वशं गतास्तेऽस्मिन् भूतले धराझे कस्य आत्मनो मलतां मलिनभाई तथा कमलतां सरोजतां प्रपेदिरे । श्लेषालङ्कारः ॥ ८६ ॥ अर्थ : ( इस प्रकार जब वह जयकुमार भी युद्धके लिए खड़ा हो गया तो) सारी सेनाके दो दल हो गये, जैसे घंटो या पत्थर द्वारा उड़दके दो दल हो जाते हैं। सो अर्क कीर्तिको ओर तो वह दल भयधारक अथवा अल्पमात्रावाला होता हआ भी जयकुमारकी ओर अत्यन्त उपकारी अर्थात् सहायक बन गया। यहाँ गजमाष यानी बड़े उड़दको सेनाको उपमा देकर जयकुमारके युद्ध में उतर आनेपर घंटोसे दालकी तरह उसका दो टुकड़ों में बँट जाना बताया है । इसलिए आगे भी अर्ककीतिके पक्षमें वह दररूप = दाररूप यानी दालरूप बन गया। लेकिन जयकुमारके पक्ष में वह 'सूप' यानी खाद्यरूपमें बन गया, यह भाव कवि सूचित करना चाहता है ।। ८५ ।। अन्वय : सपदि सोमजोज्ज्वलगुणोदयान्वयाः कौमुदाश्रयाः सम्बभुः । (च) ये परे अर्कतैजसवशंगताः ( ते ) भूतले कमलतां प्रपेदिरे। अर्थ : सोम या चन्द्रमाके गुणोंसे प्रेम रखनेवाले रात्रि-विकासी कुमुद होते हैं, जब कि कमल ( अपने विकासके लिए ) सूर्य के अधीन होते हैं। इसी प्रकार जयकुमार भी सोमनामक राजासे उत्पन्न और सहिष्णुतादि उज्ज्वल गणोंसे युक्त थे। अतः उनके अनुयायो लोग शीघ्र ही कामुदाश्रय हो गये। अर्थात् भूमण्डलपर हर्ष के पात्र बने। किन्तु जो अर्ककीर्तिके प्रतापके अधीन यानो उसके ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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