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________________ ३५७ सप्तमः सर्गः कः सदोष उपसंक्रमोऽनयश्चक्रवर्तिसुविनोदनोदय । सम्प्रसीद कुरु फुल्लतां यतः कम्पितास्तु खरदण्डभावतः॥ ६० ॥ क इति । चक्रवतिनो भरतस्य सुविनोदनस्योदयो येन सः तत्सम्बोधने, सदोषस्त्र टिपूर्णः, कः अनयो नीतिवजित उपसंक्रमः प्रक्रमो जातो यत ईदृग्रूपेण खरदण्डभावतस्तीव्रताडनारूपतो वयं कम्पिताः ? स क्षम्यतामित्यर्थः । सम्प्रसीद, फुल्लतां सौम्यभावं कुरु ॥ ६० ॥ दूतसंलपितमेवमेव तत्स्नेह उष्णकलिते जलं पतत् । तस्य चेतसि रुषान्विते जयत्तां चटत्कृतिमथोदपादयत् ॥ ६१ ॥ दुतेति । एवमुपर्युक्तं दूतस्य संलपितं तदेव तस्यार्ककीर्ते रुषान्विते सरोषे चेतसि जयत् प्रवर्तमानमुष्णकलिते वह्नितप्ते स्नेहे तैले पतज्जलमिव चटत्कृति चटचटाशब्दमुदपादयत् । तन्मनोऽधिकं रुष्टं व्यधादित्यर्थः ॥ ६१ ॥ अर्थ : हे विशालचेता और अत्यन्त दयाशील कुमार! आप आज तो इसी समय ( तत्काल ) मानवसमूह को नष्टकर भगवान् नाभिसूनु ऋषभदेवकी इस भविष्य-वाणोको काट रहे हैं कि 'कलिकालके अन्त में प्रलय होगा' तथा संहारकर्ता महादेव रुद्रका रूप धारण कर लिये हैं, जो अत्यन्त खेदकर है ॥ ५९॥ ____ अन्वय : चक्रवर्तिसुविनोदनोदय ! ( अत्र ) कः सदोषः अनयः उपसंक्रमः ( जातः ), यतः ( ईदृक् ) खरदण्डभावतः ( वयं ) तु कम्पिताः । सम्प्रसीद फुल्लतां कुरु । अर्थ : चक्रवर्ती महाराज भरतको प्रसन्नताके प्रेरणास्रोत कुमार ! यहाँ ऐसा कौन-सा त्रुटिपूर्ण और नीतिविहीन कदम उठाया गया, जिससे आपने हमें इस प्रकार कठोर ताड़नासे प्रकम्पित कर दिया ? कृपया उसे क्षमा कर दें, प्रसन्न हो जायें और सौम्यभाव धारण करें ।। ६० ॥ अन्वय : अथ एवम् तत् दूतसंलपितम् एव तस्य रुपान्विते चेतसि जयत् उष्णकलिते स्नेहे पतत् जलम् ( इव ) तां चटत्कृतिम् उदपादयत् । अर्थ : अनन्तर इस प्रकार दूतका वह शान्तिपूर्ण वचन अर्ककीर्तिके रोषभरे चित्तमें पहुँचकर गरम तेलमें पड़े जल ( बिन्दु ) की तरह प्रसिद्ध चट-चट शब्द करने लगा। अर्थात् दूतके इससे अर्ककीति और भी अधिक रुष्ट हो उठा ॥ ६१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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