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________________ ३४८ जयोदय-महाकाव्यम् [ ३९-४० प्रजाया इति । हे कुमार, प्रजायाः प्रत्युपाये समुत्कर्षनिमित्तेऽस्मिन् यदि भवादशः पुरुषोऽपायं हानिमुपपद्यते अनुभवति तहि, अत्र भ्रमावन्यो निरत्ययो निर्दोषः कः प्रत्ययो हेतुर्न कोऽपीत्यर्थः ॥ ३८॥ आत्मजः कोपवानत्र भरतस्य क्षमापतेः । समञ्चसि श्रीकुमार दीपतुत्थकथां तथा ॥ ३९ ।। आत्मज इति । हे श्रीकुमार, क्षमापतेर्भरतस्य आत्मजस्त्वमत्र कोपवान् सन् दीपात् प्रकाशात्मकात् तुत्थं कज्जलं जायत इत्येतां कथां समञ्चसि समर्थयसि । मैतत्समीचीनमिति भावः ॥ ३९ ॥ दरिद्रो वास्तु दीनो वा रुचीनः केवलं भवेत् । स्वयंवरसभायां तु बालावाञ्छा बलीयसी ॥ ४० ॥ दरिद्र इति । हे कुमार, शृणु, स्वयंवरसभायां तु वरः केवलं रुचीनो बालाया रुचेरिनः स्वामी, बालामनोऽनुकूलो भवेत्। स पुन दोनोऽस्तु, दरिद्रो वाऽस्तु । तत्र बालावाञ्छेव बलीयसी ॥ ४० ॥ अर्थ : कुमार ! आप जैसा समझदार पुरुष भी अपनी प्रजाको उन्नतिके कारणमें भी अपनी अवनति समझे, तो इसमें भ्रमके सिवा दूसरा निर्दोष क्या कारण हो सकता है ? ॥ ३८॥ अन्वय : श्रीकुमार ! भरतस्य क्षमापतेः आत्मजः त्वम् अत्र कोपवान् तथा दीपतुत्थकथां समञ्चति । अर्थ : हे कुमार, महाराज भरत तो सारी पृथ्वीके स्वामी होकर भी क्षमाके भण्डार हैं। किन्तु आप उनके पुत्र होकर भी कोप कर रहे हैं। इससे तो आप 'दीपकसे काजल'वाली कहावत ही चरितार्थ कर रहे हैं, यह उचित नहीं ॥ ३९ ॥ अन्वय : ( वरः ) दरिद्रः अस्तु दीनः वा, केवलं रुचीनः भवेत् । स्वयंवरसभायां बालावाञ्छा तु बलीयसी ( भवति )। अर्थ : स्वयंवरसभाका तो यही नियम है कि वहाँ कन्याकी इच्छा ही बलवती होती है। कन्या जिसे चाहे उसे वरे, फिर वह दीन हो या दरिद्र ॥ ४०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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