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________________ ११-१२ ] सप्तमः सर्गः स्वामिति । हे बुध, विद्वन्, पद्माभिधा सुलोचना स्वामर्ककीर्तिमुत्सृज्य विहाय सोमात्मजं जयकुमारमुपाश्रिता, असौ विधा त्वहो प्रकृतेरपि मुधा विरुद्धाऽस्ति ॥ १० ॥ सौन्दर्यसारसंसृष्टिं भृभूषां कः किलाइति भूभागे त्वयि कन्यकामिमाम् । भूतिलके सति ॥ ११ ॥ सौन्दर्येति । भूभागे पृथिव्यां त्वयि भुवस्तिलकं तस्मिन् पृथिवीभूषणे सति सौन्दर्यस्य सारो निष्कर्षस्तस्य संसृष्टिस्तां सुषुमतस्वरचनामिमां कन्यां त्वत्तोऽन्यः कः किलार्हति न कोsपीत्यर्थः ॥ ११ ॥ ईदृशा भूरिशो भृत्यास्तव भो भरताङ्गभूः । यस्मै दच्चा यमाशंसी कन्यारत्नमकम्पनः ।। १२ ।। ३३७ ईदृश इति । भो भरताङ्गभूः हे भरतात्मज, अकम्पनो यस्मै कन्यारत्नं दस्वा मातीत याशंसी मर्तुकामोऽस्तीति शेषः । ईदृशा एवम्भूतास्तव भूरिशो बहवो भृत्याः सन्ति ॥ १२ ॥ अर्थ : आश्चर्य तो यह है कि यह सुलोचना पद्मा होकर भी आप अर्ककीर्तिको छोड़ सोमात्मज जयकुमारको प्राप्त हो गयी, यह तो स्वाभाविकतासे भी विरुद्ध बात हो गयी । कमल स्वभावतः सूर्यका ही अनुगमन किया करता है, यह भाव है || १० | अन्वय : भूभागे त्वयि भूतिलके सति इमां सौन्दर्यसारसंसृष्टि भूभूषां कन्यकां कः किल अर्हति । अर्थ : पृथ्वी-मण्डलपर जब आप पृथ्वीभूषण विद्यमान हैं, तो फिर सौन्दर्यकी सारी मूर्ति और पृथ्वीको मंडनस्वरूपा इस कन्या को दूसरा कौन ग्रहण कर सकता है ? कोई नहीं, यह भाव है ॥ ११ ॥ अन्वय : भो भरताङ्गभूः अकम्पन ः यस्मै कन्यारत्नं दत्त्वा यमाशंसी, ईदृशाः तव भूरिशः भृत्याः सन्ति । अर्थ : हे भरत चक्रवर्ती के पुत्र ! सुनिये | अकम्पनने जिसे यह कन रूपी रत्न देकर अपने लिए मृत्युको निमंत्रित किया है, सो देखिये, ऐसे तो आपके हजारों नौकर हैं ॥ १२ ॥ ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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