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जयोदय- महाकाव्यम्
[ ९-१०
चक्रवर्तीति । हे प्रभो, स्वया चक्रवतिसुतत्वेन श्रीभरतसम्राडात्मजत्वेन, मणिकाराद्यभिमानतः, रत्नपरीक्षकत्वादिगर्वतः भो मम सद्मनि नवनिधयश्चतुर्दशरत्नानि सन्तीति कृत्वा अभिमानतस्त्वया परं केवलमद्य कीर्तिरेव व्यवहर्तव्येति । यद्वा, चक्रवर्तिनः कुम्भकारस्य आत्मजत्वेन त्वया मणिकाद्यभिमानेन मणिकादिपात्रनिष्पादनार्थ कीर्तिमृत्तिका व्यवहर्तव्येति परिहासः ॥ ८ ॥
वृद्धिस्थाने गुणादेशात् सहस्रांशुककीर्तनम् |
सम्यगुत्कलितं राजन्नत्र कान्ततया त्वया ॥ ९ ॥
वृद्धीति । हे राजन् त्वया भवता राजन्निह निजनाम्नि वृद्धिस्थाने रास्थाने, गुणादेशाद् रकारविधानाद् कान्ततया अन्ते ककारसंयोजनाद्, सहस्रांशुक कीर्तनम्, असंख्य वस्त्रप्रक्षालनरूपं रजकत्वं सम्यगुत्कलितं प्रकटीकृतमित्यर्थः । यद्वा, यद्यपि भवान् सुन्दरः सूर्यवत् तेजस्वी; तथाप्यद्य स्वमहिमापेक्षया अवमानमुपगतः ॥ ९ ॥ त्वामर्क कीर्तिमुत्सृज्य सोमात्मजमुपाश्रिता । पद्माभिधा विधाऽसौ तु मुधा हो प्रकृतेर्बुध ॥ १० ॥
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अर्थ : हे विभो ! आप चक्रवर्तीके पुत्र हैं और 'हमारे यहाँ नौ निधियाँ और चौदह रत्न हैं' इस प्रकार अभिमान रखते हैं आपकी कीर्ति भी ऐसी हो है । किन्तु इस कीर्तिमात्रको आप भले ही लादे रहें, इसमें क्या सार रखा है ? एक अर्थ तो यह हुआ ।
दूसरा अर्थ : आप चक्रवर्ती अर्थात् कुम्भकारके पुत्र हैं, इसलिए मणिका अर्थात् मटकी आदि बनाने के लिए कीर्ति यानी मिट्टी से काम लिया करें । अर्थात् कुम्हारकी तरह बैठे-बैठे बरतन बनाया करें, यह परिहास है ॥ ८ ॥
अन्वय : राजन् ! अत्र त्वया कान्ततया वृद्धिस्थाने गुणादेशात् सहस्रांशुककीर्तनं सम्यक् उत्कलितम् ।
अर्थ : राजन् ! आपने तो यहाँ अपने राज-नामके अन्त में 'क' लगाकर और 'रा' के स्थान में 'र' गुण लाकर हजारों कपड़ोंको धोनेवाला रजकपन ही
स्पष्ट कर बताया ।
दूसरा अर्थ : यद्यपि आप सुन्दर और सूर्यके समान तेजस्वी हैं । किन्तु आज तो अपनी महिमाके स्थानपर आपने अपमान ही पाया है ॥ ९॥
अन्वय : बुध ! पद्माभिधा त्वाम् अर्ककीर्तिम् उत्सृज्य सोमात्मजम् उपाश्रिता, असो विधा तु अहो ! प्रकृतेः अपि मुधा ।
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