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जयोदय-महाकाव्यम्
[२० विषमसंख्यत्वमापुः । लोकसमये सूर्यस्य सारथिरेकजङ्गः, रथाङ्गन्मेकम, घोटकाः सप्त धूयन्ते । तदादाय कविनेदमुत्प्रेक्षितम् । अनेन जयकुमारस्य राज्ये सन्तुष्टस्य जनसमूहस्य समयः सहजमेव निरगादिति भावः ॥ १९॥ यदुहृदां देहत एव बाह्यमनिस्सरन्तीमसती निगाह्य । कीर्ति सतः स्वैरविहारिणी ते सती प्रतीयन्त्वधिपाः प्रणीतेः ॥२०॥
यदिति । दुहृदां दुष्टानां देहत एव शरीरावपि बाह्यमनिस्सरन्ती न निगच्छन्ती कीर्तिमसती दुःशीलां निगाह्य ज्ञात्वा पुन: सतो जयकुमारस्य स्वरविहारिणी यथेच्छं पर्यटन्ती कीति सती साध्वीं, प्रसिद्धाः प्रणीतेः अधिपा नीतिविदः प्रणयनकारिणश्च जिनसेनावयः प्रतीयन्तु जानन्तु । प्रणीतेरधिपत्वात् निरङ्कुशत्वात् न तेषां रोधनकारकः कोऽपोति । अन्यथा तु पुनः स्वामिनः सङ्गमत्यजन्ती सती स्वरं गच्छन्ती च असतीति निगद्यते ॥ २० ॥
टांग नहीं रही, रथका पहिया एक शेष रह गया और घोड़े भी समसे विषम हो गये अर्थात् आठकी जगह सात हो गये।
विशेष : यद्यपि उपर्युक्त बातें सूर्यमें स्वाभाविक हैं, किन्तु कविने उत्प्रेक्षा द्वारा यह कहा है कि उस राजाके प्रयाणके वाद्यसे भयभीत होकर सूर्य तेजोसे जब दौड़ा तो उसकी यह अवस्था हुई ।। १९ ।। ___ अन्वय : ( ये ) प्रणीतेः अधिपाः ते यदुहृदां देहतः एव बाह्यम् अनिस्सरन्ती कीर्तिम् असती निगाह्य सतः स्वरविहारिणी ( कोतिं ) सती प्रतीयन्तु ।
अर्थ : जो नीतिशास्त्रके अधिकारी ज्ञाता या जिनसेनादि आचार्य हैं, वे ( महाराज जयकुमारके ) शत्रुओंकी देहसे कभी बाहर न निकलनेवाली उनकी कीर्ति ( -कामिनी) को असती ( व्यभिचारिणी या असत् ) जानकर सज्जन जयकुमारकी स्वच्छन्दगामिनी कीर्तिको सती मान लें, तो मानते रहें।
विशेष : लोक व्यवहार तो यही है कि जो घरसे बाहर नहीं निकलती, वह स्त्री 'सती' कही जाती है और स्वच्छन्द घूमनेवालीको 'असती' कहा जाता है। किन्तु यहाँ कविने शत्रुके शरीरमात्रमें बंधी रहनेवाली कोतिको असती बताकर जगभर फैलानेवाली जयकुमारकी कीतिको सती बताया है, यह आर्थिक विरोधाभास है। नीतिशास्त्रविदों या जिनसेनादि आचार्योंके निरंकुश होनेसे इसका परिहार हो जाता है।॥ २०॥
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