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________________ ७३-७४ ] पञ्चमः सर्ग २५१ दृसंक्रमिताप्सरस्सु यूनामनिमेषतामवापादूना। आलिषु सुधाधुनी पुनरेनां प्राप्य सफरतामितेत्यनेना ।। ७३ ।। दृक्संक्रमितेति । पूना तरुणाना या दक् सालिषु तस्याः सहपरीषु संक्रमिता सती तववलोकनसमय एवाप्सरस्तु तासु बेवगणिकासदृशीषु, अनिमेषतां निमेषाभावतामवाप, अदूना न्यूना सती । पहा, अप्सरस्सु जलाशयेषु मत्स्यरूपतामवाप । सेव पुनरनेना निष्पापा बुगेनां सुषानीममतनवीं प्राप्य सफरता फलवत्ता, यहा पृथुरोमता बृहन्मीनभावमवापेति ॥७३॥ युवमनसीति वितर्कविधात्री सुकृतमहामहिमोदयपात्री। सदसमवाप मनोहरगात्री परिणतिमेति ययाखलु धात्री।। ७४ ॥ युवमनसीति । यूनां तरुणानां मनसि हदीत्येवं वक्ष्यमाणरीत्या वितर्कस्य विषात्री सुकृतस्य पुण्यकर्मणो महामहिम्न उवयस्य पात्रीत्येवंरीत्या मनोहरगात्री यया खलु धरगोयं पराऽपि परिणतिमेति, धरारूपतां त्यक्त्वा दिव्यरूपतामाप्नोति सा सुलोचना सवसं सभामवापेति ॥ ७४ ॥ __ अर्थ : सुलोचनाकी तनुलता वसन्तऋतुके समान थी, जिसका भोग करनेके लिए लोगोंका मनरूपी पक्षी शीघ्रतासे जाना चाहता था। उसके लिए जंभाई लेनेवाले उन राजाओंद्वारा बजायी चुटकी ही प्रेरक हो गयो । ७२ ॥ __अन्वय : यूनाम् अदूना दृक् आलिषु अप्सरस्सु संक्रमिता सती अनिमेषताम् अवाप । पुनः अनेना सा एनां सुधाधुनीं प्राप्य सफरतां इता इति । ___ अर्थ : इन युवकोंकी उत्कण्ठाभरी दृष्टि अप्सराओं-सी (सुलोचनाकी) सखियोंपर गयी तो उसी समय निनिमेष हो गयी। इसके बाद जब उन युवकोंकी आंखोंने अमृतनदी-सी सुलोचनाको देखा, तो वह सफलता ही पा गयी। विशेष : मछलीका एक नाम 'अनिमेषक' भी है और 'सफर' है बड़ी मछली । सो 'अप्सरस्सु' अर्थात् जलके तालाबोंमें जो दृष्टि अनिमेषक बनी, वही अमृतको नदीमें पहुंचकर 'स(श)फर' यानी बड़ी मछलीके रूपमें परिणत हो गयी, यह दूसरा भी अर्थ है ॥ ७३ ॥ अन्वय : यया खलु धात्री परिणतिम् एति, सा मनोहरगात्री सुकृतमहामहिमोदयपात्री युवमनसि इति वितकं विधात्री सती सदसम् अवाप । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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