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________________ ६४-६५ ] पञ्चमः सर्गः पूर्वेति । सा नृपनायतनूजा, अथात्र स्वयंवरारम्भे जिनेषु सम्यग्दृष्टिप्रभृतिषु यः पुङ्गवः तस्य या पूजाऽऽराधना तामाचचार तावद्यतो यत्र भूत्रयपतेः जिनेन्द्रस्य भक्तिभवति सेव सत्कृतस्य पुण्यस्य पक्तिः परिपाको भवति ॥ ६३ ॥ कौतुकानु कलितालिकलापाऽऽमोदपूरितधरामृदुरूपा । तत्स्वयंवरवनं निजगामासौं वसन्तगणनास्वभिरामा || ६४ || २४७ कौतुकेति । कौतुकेन विनोदेन, यद्वा कुसुमेन सार्धमनुकलितः सम्पादित आलीनां कलापः सखीनां समूहः । यद्वा अलीनां भ्रमराणां समूहो यया साऽऽमोदेन हर्षभावेन पूरितं, पक्षे सुगन्धेन व्याप्तं धराया मृदुरूपं यया सा, वसन्तस्य गणनास्वभिरामा मनोहरा सती तत्स्वयंवरमेव वनं निजगाम ॥ ६४ ॥ पुष्परूपधनुषा स्मर एनं जेतुमईतु जयं गुणसेनम् । शक्रचापममुकाय ददाना स्वान्दुरत्नरुचिजं मृदुयाना ।। ६५ ।। पुष्पेति । एनं गुणानां धैर्य-सौन्दर्यादीनाम् यद्वा मन्त्रि सामन्तादीनां च सेना समूहो यत्र तं जयराजकुमारं स्मरः कामदेव पुष्परूपेण धनुषा जेतुमर्हतु समर्थोऽस्तु, इत्येवं अर्थ : यहाँ उस सुलोचनाने पहले भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा की । क्योंकि जहाँ भी त्रिभुवनपति भगवान्को भक्ति हुआ करती है, वहीं पूर्णरूप से पुण्यका परिपाक होता है ॥ ६३ ॥ अन्वय : असौ वसन्तगणनासु अभिरामा कौतुकानुकलितालिकलापा आमोदपूरितघरामृदुरूपा सती तत् स्वयंवरवनं निजगाम । अर्थ : तदनन्तर वसन्तकी समानता रखनेवाली वह सुलोचना उस स्वयंवरमण्डपरूपी वन में पहुँची । क्योंकि वसन्तऋतु फूलोंपर मँडरानेवाले भौरोंसे युक्त होती है, तो सुलोचना भी कौतुकभरी अपनी सखियोंको साथ लिये थी । इसी तरह वसन्तऋतु फूलोंको परागसे धरातलको पूरित कर मृदुरूप बना देती है, तो सुलोचना भी सबको प्रसन्न करनेवाली थी || ६४ ॥ अन्वय : मृदुयाना एनं गुणसेनं जयं स्मरः पुष्परूपधनुषा जेतुम् अर्हतु इति अमुकाय स्वान्दुरत्नरुचिजं शक्रचापं ददाना ( शुशुभे ) । अर्थ : हंसगति उस सुलोचनाने सोचा कि गुणोंके भण्डार और वीरसेनासंपन्न जयकुमारको कामदेव अपने फूलोंके धनुषसे क्या जीत सकेगा ? यही सोच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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